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अङ्क ९-१०]
आदिपुराणका अवलोकन ।
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अर्थात् इसके बाद वेश्याओं या गणिकाओंने अर्थात् वहाँ पर 'जय जय' ऐसे मंगल शब्द बढ़ती हुई लयोंके साथ सुन्दर नृत्य करना आरंभ करनेवाले वन्दीजनोंके साथ महाराज भरत किया। उस समय उनके पैरोंके नूपुर और कर. शिबिर या छावनीके भीतर जाकर राजभवनके धनीके धुंघरू बजते थे।
__महाद्वारपर पहुँचे । वहाँ अन्तःपुरके रक्षकोंने इसी प्रकार जब आदिनाथ भगवान्का राज्या- और वेश्याओंने उन्हें मंगलाक्षत और आशीभिषेक हुआ उस समय राजमहलमें वेश्यायें, गा र्वाद दिये । इसके बाद वे अपने भवनके भीतर रही थीं और देवांगनायें नाच रही थीं:- पहुँचे जिसके ऊपर ध्वजायें फहरा रही थीं।
तदानन्दमहाभेर्यः प्रणेदुर्नपमन्दिरे। __ आगे पर्व २९ के नीचे लिखे श्लोक पढ़नेसे मंगलानि जगुर्वारनार्यो नेटुः सुराङ्गनाः ॥१९७॥ मालूम होता है कि ये वेश्यायें दिग्विजय यात्रामें
१६। भरतमहाराजके लश्करके साथ साथ चलती भगवान् आदिनाथके राज्याभिषेकके समय रही हैं:वेश्याओंका नृत्य होना वेश्यानृत्य करानेकी वित्रस्तरपथमुपाहृतस्तुरंगैः आज्ञाके ही समान समझा जाना चाहिए। आगे पर्यस्तो रथ इह भग्नधूनिरक्षः। जब भगवानको वैराग्य हुआ और उनके पुत्रोंका एतास्ता द्रुतमुपयांत्यपेत्य मार्गाद्राज्याभिषेक हुआ, उस समय भी यह परम वारस्त्रीवहनपराश्च वेगसर्यः । आवश्यक कार्य किया गया
वित्रस्तः करभनिरीक्षणाद्गजोऽयं
भीरुत्वं प्रकटयति प्रधावमानः । एकतोऽप्सरसां नृत्यमस्पृष्टधरणीतल ।
उत्त्रस्थात्पतति च वेसरादमुष्माद्सलीलपदविन्यासमन्यतो वारयोषिताम् ॥ ८६ ॥
_ विस्रस्तस्तनजघनांशुका पुरंध्री ॥ -पर्व १७ ।
अर्थात् घोड़ोंने (हाथियोंसें) डरकर इस . अर्थात् एक ओर तो अप्सराओंका जमीनको
रथको कुमार्गमें ले जाकर पटक दिया है, इसका न छूनेवाला ( अधर ) नृत्य हो रहा था और
धुरा जुआ आदि टूट गया है और वेश्याओंको दूसरी ओर वेश्याओंका नृत्य होता था, जिसमें ले जानेवाली ये खच्चरियाँ अपना मार्ग छोड़कर वे बड़ी सुन्दरतासे पैर रखती थीं।
बहुत शीघ्र दौड़ी जा रही हैं। यह हाथी भी वेश्याओंको साथ रखना और उनसे हँसी ऊँटको देखकर डर गया है और भागता हुआ मजाक करना भी उस समय बुरा नहीं समझा अपना डरपोकपना प्रकट कर रहा है । इधर इस जाता था। और तो क्या युद्धके समय भी अतिशय डरी हुई खच्चरीपरसे यह स्त्री नीचे गिर वेश्यायें आवश्यक समझी जाती थीं। जब भरत गई है और इस कारण उसके स्तनों और महाराज अपनी दिग्विजययात्रामें वरतनु नामक जघनोंपरका कपड़ा खिसक गया है। समुद्रस्थ देवताको जीतकर अपने डेरेपर आये, ४२ वें पर्वमें ग्रन्थकर्ताने महाराज भरतकी तब कहा है कि:
दिनचर्याका विस्तारसे वर्णन किया है । वहाँ तत्रोद्धोषितमंगलर्जयजयेत्यानन्दतो बन्दिभि- भोजनके पश्चात् दो पहरका कुछ समय वे स्वान्तःशिबिरं नृपालयमहाद्वारं समासादयन् । किस तरह व्यतीत करते थे, इसके विषयमें अन्तर्वशिक लोकवारवनितादत्ताक्षताशासनः, लिखा है:प्राविक्षनिजकेतनं विधिपतिर्वातोल्लसत्केतनम् ॥ तत्र वारविलासिन्यो नृपवल्लभिकाश्च तं ।'
-पर्व २८ । परिवरुपारूढतारुण्यमदकर्कशाः। १३१
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