Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 26
________________ ३९८ जैनहितैषी [भाग १३ ता रूसिऊण पहओ, बड़ा भारी बारह वर्षोंमें समाप्त होनेवाला दुर्भिक्ष सीसे सीसेण दीहदंडेण। होगा । इस लिए सबको अपने अपने संघके थविरो घाएण मुओ, साथ और और देशोंको चले जाना चाहिए । जाओ सो वितरो देवो ॥६८॥ ५३-५४ । यह सुनकर समस्त गणधर अपने इयरो संघाहिवई, अपने संघको लेकर वहाँसे उन उन देशोंकी पयडिय पासंड सेवडो जाओ। अक्खइ लोए धम्म, ओर विहार कर गये, जहाँ सुभिक्ष था। ५५ । सग्गंथे अत्थि णिव्वाणं ॥६९॥ उनमें एक शान्ति नामके आचार्य भी थे, जो सच्छाइ विरइयाई अपने अनेक शिष्योंके सहित चलकर सोरठ णियणिय पासंड गहियसरिसाई। देशकी वल्लभी नगरीमें पहुँचे । ५६ । परन्तु वक्खाणिऊण लोए, उनके पहुँचनेके कुछ ही समय बाद वहाँ पर भी पवत्तियो तारिसायरणे ॥७॥ बड़ा भारी अकाल पड़ गया । भुखमरे लोग णिग्गंथं दूसित्ता, दूसरोंका पेट फाड़ फाड़कर और उनका खाया जिंदित्ता अप्पणं पसंसित्ता। हुआ भात निकाल निकाल कर खा जाने लगे। जीवे मूढयलोए, ५७। इस निमित्तको पाकर-दुर्भिक्षकी परिस्थिकयमाय (2) गेहियं बहुं दव्वं ॥७१॥ तिके कारण-सबने कम्बल, दण्ड, तूम्बा, पात्र, इयरो विंतर देवो, संती लग्गो उवद्दवं काउं। आवरण ( संथारा) और सफेद वस्त्र धारण कर जंपइ मा मिच्छत्तं, लिये । ५८ । ऋषियोंका ( सिंहवृत्तिरूप ) आगच्छह लहिऊण जिणधम्मं ॥७२॥ चरण छोड़ दिया और दीनवृत्तिसे भिक्षा ग्रहण भीएहि तस्स पूआ, करना, बैठ करके, याचना करके और स्वेच्छाअद्वविहा सयलदव्वसंपुण्णा। पूर्वक बस्तीमें जाकर भोजन करना शुरू कर जा जिणचंदे रइया, दिया। ५९। उन्हें इस प्रकार आचरण करते सा अज्जवि दिणिया तस्स ॥७३॥ हुए कितना ही समय बीत गया । जब सुभिक्ष अज्जवि सा वलिपूया, पढमयरं दिति तस्स णामेण । हो गया, अन्नका कष्ट मिट गया, तब शान्ति सो कुलदेवो उत्तो, आचार्यने संघको बुलाकर कहा, कि अब इस . सेवडसंघस्स पुज्जो सो ॥ ७४॥ कुत्सित आचरणको छोड़ दो, और अपनी इय उप्पत्ती कहिया, निन्दा, गर्दा करके फिरसे मुनियोंका श्रेष्ठ आचसेवडयाणं च मग्गभहाणं। रण ग्रहण कर लो ॥ ६०-६१ । इन वचनोंको एच्चो उ8 वोच्छं, सुनकर उनके एक प्रधान शिष्यने कहा कि अब __णिसुणह अण्णाणमिच्छत्तं॥७५॥ उस अतिशय दुर्धर आचरणको कौन धारण कर अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके १३६ वर्ष सकता है ? उपवास, भोजनका न मिलना, तरह बाद सोरठ देशकी वल्लभी नगरीमें श्वेताम्बर तरहकं दुस्सह अन्तराय, एक स्थान, वस्त्रोंका संघ उत्पन्न हुआ । ५२ । ( उसको कथा इस अभाव, मौन, ब्रह्मचर्य, भूमि पर सोना, हर दो प्रकार है ) उज्जयनी नगरीमें भद्रबाहु नामके महीनेमें केशोंका लोच करना, और असहनीय आचार्य थे । वे निमित्त ज्ञानके जाननेवाले थे, बाईस परीषह, आदि बड़े ही कठिन आचरण इस लिए उन्होंने संघको बुलाकर कहा कि एक हैं। ६२-६४ । इस समय हम लोगोंने जो कुछ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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