Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ अङ्क ९-१० ] मोक्ष नहीं होता है । वह लोगों पर यह प्रकट करने लगा कि अज्ञानसे ही मोक्ष होता है । देव या ईश्वर कोई है ही नहीं । अतः स्वेच्छापूर्वक शून्यका ध्यान करना चाहिए । भट्टारक लक्ष्मीचन्द्रके शिष्य पं० वामदेवके बनाये हुए संस्कृत भावसंग्रहके भी हमें इसी समय दर्शन हुए* । यद्यपि पं० वामदेवने इस बातका कहीं उल्लेख नहीं किया है; परन्तु मिलान करने से मालूम हुआ कि उन्होंने प्राकृत भावसंग्रहका ही न्यूनाधिकरूपमें अनुवाद करके अपना यह ग्रन्थ बनाया है । मस्करिपूरणके सम्बन्धमें उन्होंने नीचे लिखे ५ श्लोक लिखे हैं । इनसे पूर्वोक्त गाथाओं का अभिप्राय अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है । दर्शनसार विवेचनाका परिशिष्ट । Jain Education International वीरनाथस्य संसदि ॥ १८५ ॥ जिनेन्द्रस्य ध्वनिग्राहि. भाजनाभावतस्ततः । शक्रेणात्र समानीतो ब्राह्मणो गोतमाभिधः ॥ १८६ ॥ सद्यः स दीक्षितस्तत्र सध्वनेः पात्रतां ययौ । ततः देवसभां त्यक्त्वा निर्ययौ मस्करीमुनिः ॥ १८७ ॥ सन्त्यस्मदादयोऽप्यत्र मुनयः श्रुतधारिणः । तांस्त्यक्त्वा सध्वनेः पात्रमज्ञानी गोतमोऽभवत् ॥ १८८ ॥ संचिन्त्यैवं कुधा तेन दुर्विदग्धेन जल्पितम् । मिथ्यात्वकर्मणः पाकाज्ञानत्वं हि देहिनाम् ॥ १८९ ॥ इसकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीयुत पं० उदयलालजी काशलीवालके पास मौजूद है । प्रन्थकर्ताने अपनी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है— विनय चन्द्रत्रैलोक्यकीर्ति - लक्ष्मीचन्द्र और वामदेव । प्रन्थके रचनेका समय नहीं दिया । * हेयोपादेयविज्ञानं देहिनां नास्ति जातुचित् । तस्मादज्ञानतो मोक्ष इति शास्त्रस्य निश्चयः ॥ १९० ॥ अर्थात् – वीरनाथ भगवान् के समवसरणमें जब योग्य पात्रके अभावमें दिव्यध्वनि निर्गत नहीं हुई, तब इन्द्र गोतम नामक ब्राह्मणको आये । वह उसी समय दीक्षित हुआ और दिव्यध्वनिको धारण करनेकी उसी समय उसमें पात्रता आ गई। इससे मस्करिपूरण मुनि सभाको छोड़कर बाहर चला आया । यहाँ मेरे जैसे अनेक श्रुतधारी मुनि हैं, उन्हें छोड़कर दिव्यध्वनिका पात्र अज्ञानी गोतम हो गया, यह सोचकर उसे क्रोध आगया । मिथ्यात्वकर्मके उदयसे जीवधारियोंको अज्ञान होता है। उसने कहा देहियों को हेयोपादेयका विज्ञान कभी हो ही नहीं सकता । अत एव शास्त्रका निश्चय है कि अज्ञानसे मोक्ष होता है । / दर्शनसारकी वचनिकामें + मस्करिपूरणके ३९५ , + बाम्बे रायल एशियाटिक सुसाइटीकी रिपोर्टमें डा० पिटर्सनने 'दर्शन-सार वचनिका का एक जगह हवाला दिया है और लिखा है कि यह ग्रन्थ जयपुरमें है । तदनुसार हमने इसकी खोज करनी शुरू की और हमें जयपुरसे तो नहीं; परन्तु देवबन्दसे श्रीयुत बाबू जुगलकिशोर जीके द्वारा इसकी एक प्रति प्राप्त हो गई । इसके कर्त्ता पं० शिवजीलालजी हैं । माघ सुदी १० सं० १९३३ को सवाई जयपुरमें यह बनकर समाप्त हुई । इसकी श्लोकसंख्या लगभग ३५०० और पत्र १६२ हैं । इसमें गाथाओंका अर्थ तो बहुत ही संक्षेपमें लिखा है, संस्कृत छाया भी नहीं दी. है; परन्तु प्रत्येक धर्मका सिद्धान्त और उसका खण्डन खूब विस्तारसे दिया है। मूल गाथाओंमें जिन मतका ' विषयमें भी बहुत कुछ लिखा है । बहुतसे मत उल्लेख है, उनके सिवाय मुसलमान और ईसाई मतके. विषयमें आपने बड़ी गहरी भूलें की हैं। जैसे मस्करिपूरणको मुसलमान धर्मका मूल मान लेना और योपनीय संघको मूर्तिपूजा-विरोधी लोकागच्छ समझ लेना । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98