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जैनहितैषी
[भाग १३
विस्मृतिने भी कहा उसी क्षण, निजपतिका मत ध्यान धरो,
आगे मुख हो चलो निरन्तर, पीछेको मत कान करो ॥३॥ हरिसेवकका शास्त्र-रीतिसे, कर्णवेध-संस्कार हुआ,
शिष्टाचार हुआ पूज्योंका, और मंगलाचार हुआ। जगमें नहीं किसीकी भी स्थिति, एक रंग रह जाती है,
जो रोती थी प्रथम सुशीला, आज वही हँस गाती है ॥४॥ सुदिन सुलग्न सोध कर उसका विद्यारम्भ हुआ सुखसे, _____ तुरत उसे वह आ जाता था, सुनता था जो गुरु-मुखसे। विद्याध्ययन देखकर सुतका. सुखी सुशीला हई बडी.
यद्यपि उसे अर्थकी चिन्ता-मनमें थी हरघड़ी कड़ी ॥५॥ रामदेवके रहने पर भी, यदपि सुशीला धनी न थी, ___ किन्तु आजसी वस्तु अपावन, कभी जातिमें बनी न थी। जो जन उसका कहलाता था, हुआ पराया आज वही,
जिस पर रहा भरोसा; उसके काम न आया आज वही ॥६॥ जहाँ सुशीला जा पड़ती थी, भूमि-भार हो जाती थी,
सीधे मुख वह था न बोलता, जब वह जिसे बुलाती थी। यदि विचार कर देखा जावे, तो स्थिर होगी बात यही,
दीन बराबर कभी दुखी हैं, नारकीय भी जीव नहीं ॥७॥ नीचोंसे भी नीच वही है जिसके पास न हो कलदार,
गुण-सागर भी हो जाता है जग में निर्धन जन बेकार। चाहे वह रूठे या रीझे, हानि, लाभकी बात नहीं,
ऊसर भूपर गरल-कुसुम या, खिल सकता है कमल कहीं ? ॥८॥ निर्धन जन हो निर्बल होता, निर्बल हो अधिकार-विहीन,
अनधिकारसे परिभव सहता, अपमानित हो शोकविलीन । शोकातुर हो वह मर जावे, यदि आशाका मिले न संग,
आशा डोरी बँधा विश्व है, उड़ती नभमें यथा पतंग ॥९॥ यदि न सहारा आशा देती, कभी सुशीला मर जाती,
___ या उस हतह्वदया अबलाकी, सुधिबुधि वरवस हर जाती। होनहार पर लख निज सुतको, उसके सब दुख दूर गये,
और हृदय-मन्दिरमें सुन्दर, जगे मनोरथ नये नये ॥१०॥ सुत मिला जिसको गुरु-भक्त हो, स्वजनमें अनुरक्त सशक्त हो। अति सुखी उसको अनुमानिए, सुकृतका उसके फल जानिए ॥११॥ यदि गुणी विनयी वर विज्ञ हो, तनय, और नयज्ञ कृतज्ञ हो। तब भला जननी दुख क्यों सहे ? हतमनोरथ होकर क्यों रहे ? ॥ १२ ॥
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