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अङ्क ९-१०] समाजसुधारमें सबसे अधिक डर किन लोगोंसे है?
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नहीं हुई ? जब हिन्दी जैनगजटने भी विधवा- जाने कब किस दशामें वह वार कर बैठे। और विवाहके विरुद्ध हटवादसे नहीं किन्तु युक्तिसे उसका वार भी बहुधा ऐसा होता है कि काम लेनेकी भी चेष्टाका प्रारम्भ कर दिया है तब ज्ञात नहीं होता कि वह भलाई करता है आन्दोलनकी निष्फलता कैसी ? यही तो सबसे या बुराई। कठिन कार्य था और यदि इसहीमें सफलताके
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ठीक इसही प्रकार समाज-सुधारको उनलोगोंसे चिह्न दिखलाई देते हैं तब निराशा क्यों ?
. कुछ अधिक भय नहीं है जो प्रकट रूपसे उसके जो लोग इस सुधारके कार्यमें लगे हैं उन्हें विरोधी है। क्योंकि जैसा ऊपर लिखा जा इस बातको अच्छी तरह समझ लना चाहिए कि चका है हम उन पर धीरे धीरे विजय प्राप्त कर यह निराशा उत्पन्न करनवाल व हा लाग है जा रहे हैं। वे हमारी सेनाद्वारा घिर चुके हैं, , सुधारके विरोधी हैं । उनका यह भी एक अस्त्र और कुछ समयके बाद अवश्य ही उन्हें सन्धि: है। क्योंकि यदि सुधारकोंमें निराशाको स्थान करनी पड़ेगी, क्योंकि उन्हें ज्ञात हो जायगा मिल गया तो यह निश्चय है कि सब बातें युक्ति- कि वास्तवमें उनका पक्ष असत्य था। संगत, लाभदायक और सत्य होने पर भी उनका कार्य ढीला हो जायगा और सम्भवतः निर्बल किन्तु प्रत्येक समाजमें ऐसे लोग बहुत होते हैं होने पर भी विरोधियोंकी जीत हो जायगी। जो कहते हैं कि सुधार तो होना चाहिए, किन्तु पूजनीय पं. मदनमोहन मालवीयने हालही में सहसा नहीं । पहले तो धीरे धीरे समस्त समाहिन्दविश्वविद्यालयमें एक व्याख्यानमें कहा जको इस ओर आकृष्ट करना चाहिए और जब था कि “निराशासे और मझसे वैर है।" मतभेद न रह जाय तब समाजकी ओरहीसे उनका भाव यह भी था कि यदि सफलताके एक नियमद्वारा सुधार कर लिया जायगा। मतचिह्न न भी दिखलाई दें तब भी आशाको छोड भेद रहते भी यदि दो चार मनुष्य ही सुधारके देना कायरता है । अतः विरोधियोंके इस कार्यको कर डालेंगे तो बड़ी हानि होगी। सारा , अस्त्रका मुकाबला सावधानीसे करना चाहिए। समाज उनके विरुद्ध हो जायगा और फिर
किन्तु इस लेखमें मेरी इच्छा एक और ही उनकी कोई भी न सुनेगा । सुधार भी रक्खा बातकी ओर सुधारकोंका ध्यान आकृष्ट करनेकी रह जायगा। है । युद्धमें सेनापतियोंको सबसे पहले यह यह मत देखनेमें बड़ा सुन्दर जान पड़ता है। विचार लेना पड़ता है कि शत्रुका बल किस तरफ सुधारके हितके लिए ऐसी सलाह देनेवालोंको अधिक है, वह कौन कौन शस्त्र काममें ला रहा सुधारका विरोधी कहनेकी मी इच्छा नहीं होती है और उनसे बचनेके क्या क्या उपाय हैं। किन्तु और सुधारकोंका काम रोकनेका प्रयत्न करनेके । इनसे भी अधिक ध्यान उन्हें इस बातका रखना कारण विरोधी लोग भी इनसे प्रसन्न रहते हैं। पड़ता है कि कहीं अपनी ही सेनामें तो कोई फल यह होता है कि इन लोगोंका समाजमें शत्रुका पक्षपाती नहीं है । क्योंकि शत्रु जो बहुत आदर हो जाता है। इनके दोनों हाथों वार करता है वह प्रकट रूपसे करता है और लडू रहते हैं । सुधारकने यदि कोई साहसका उससे बचनेका उपाय भी आसानी से हो जाता कार्य किया तो ये उसकी निन्दा करने लगते है। किन्तु जो मित्र बनकर शत्रका पक्ष ग्रहण हैं और धैर्यसे कार्य करनेकी सलाह देते हैं। करता है उससे बहुत डरना चाहिए; क्योंकि न विरोधी लोग कहने लगते हैं-"देखो साहब,
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