Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 11
________________ ब्राह्मणकी उत्पत्ति | Jain Education International अङ्क ९-१० ] इन श्लोकोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि भरतमहाराज - ब्राह्मणवर्ण स्थापन करते समय जो मिथ्यात्वी ब्राह्मण मौजूद थे, वे जनेऊ पहनते थे और अपनेको ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न हुआ मानते थे । उनही के मुकाबिलेमें भरतमहाराजने अपने बनाये हुए ब्राह्मणों को यह उत्तर सिखाया कि, तुम भी यह कहो कि, हमने जिनेन्द्र भगवान् के मुखसे निकली हुई जिनवाणीको ग्रहण किया है, इस वास्ते हम भी श्रीस्वयम्भू भगवान् के मुख से ही उत्पन्न हुए हैं और जिसप्रकार तुम जनेऊ पहने हुए हो उसी प्रकार हम भी पहने हुए हैं, और तुमको जो अपनी जातिका घमंड मिथ्या है। क्योंकि तुम अपनेको परम्परासे ब्राह्मणकी संतान सिद्ध करके शरीरजन्मका घमंड करते हो । शरीर अनेक दोषोंसे दूषित होता है, इस वास्ते शरीरका अर्थात् जातिका स्वसात्कृत्य समुद्भूता वयं संस्कारजन्मना ॥ ११५ ॥ घमंड नहीं करना चाहिए । रत्नत्रय ग्रहणका अयोनिसंभवास्तेन देवा एव न मानुषाः । और व्रतोंके पालनेका जन्म - जिसको संस्कारवयं वयमिवान्येऽपि संति चेद्द्ब्रूहि तद्विधान् ॥ ११६॥ जन्म कहते हैं - हमने प्राप्त कर लिया है, इस स्वायंभुवान्मुखाज्जातास्ततो देवद्विजा वयं । कारण हमारे माता पिता कोई भी हों, किन्तु व्रतचिह्नं च नः सूत्रं पवित्रं सूत्रदर्शितं शक्तियों को प्राप्त करके मैं संस्काररूपी जन्मसे प्राप्त हुआ हूँ । मैं बिना योनिके पैदा हुआ हूँ, इस कारण देव हूँ; मनुष्य नहीं हूँ । मेरे समान जो कोई भी हों उन सबको तू देव - ब्राह्मण ही कह । मैं श्रीस्वयम्भू भगवान् के मुख से उत्पन्न हुआ हूँ, इस वास्ते देवद्विज हूँ, मेरे व्रतका शास्त्रोक्त चिह्न यह मेरा पवित्र जनेऊ है । आप लोग द्विज नहीं हैं, किन्तु गलेमें तागा डालकर श्रेष्ठ मोक्षमार्गमें तीक्ष्ण काँटे बनते हुए पापरूप शास्त्रोंके अनुसार चलनेवाले केवल मलसे ही दूषित हैं । जीवोंका जन्म दो प्रकारका है, एक शरीर जन्म और दूसरा संस्कारजन्म | इस ही प्रकार जैनशास्त्रोंमें मरण भी दो प्रकारका कहा है, पहले शरीरके नष्ट होने पर दूसरे भव में दूसरे शरीर के प्राप्त होने को जीवोंका शरीरजन्म समझना चाहिए । इसही प्रकार जिसे अपने आत्माकी प्राप्ति नहीं हुई है, उसको संस्कारोंके निमित्तसे दूसरे जन्मकी प्राप्तिका होना संस्कारजन्म है । इसी प्रकार आयु पूर्ण होनेपर शरीर छोड़ना शरीरमरण है और व्रतोंको धारण करके पापों को छोड़ना संस्कारमरण है । जिसको ये संस्कार प्राप्त हुए हैं, उसका मिथ्यादर्शनरूप पहली पर्यायसे मरण ही हो जाता है । इन दोनों जन्मोंमेंसे यह संस्कारजन्म जो पापसे दूषित नहीं है गुरुकी आज्ञानुसार मुझको प्राप्त हुआ है, इस वास्ते मैं देवद्विज हूँ ।" मूल श्लोक ये हैं:श्रूयतां भो द्विजंमन्य त्वयाऽस्मद्दिव्यसंभवः जिनो जनयिताऽस्माकं ज्ञानं गर्भोऽतिनिर्मलः ॥११४॥ तत्राईतीं त्रिधा भिन्नां शक्तिं त्रैगुण्यसंश्रितां । ११७ ॥ हम देवद्विज हैं। ३८३ पापसूत्रानुगा यूयं न द्विजा सूत्रर्कटकाः । सन्मार्गकंटकास्तीक्ष्णाः केवलं मलदूषिताः ॥ ११८ ॥ शरीरजन्म संस्कारजन्म चेति द्विधा मतं । जन्मांगिनां मृतिश्चैवं द्विधाम्नाता जिनागमे ।। ११९ ।। देहांतरपरिप्राप्तिः पूर्वदेहपरिक्षयात् । शरीरजन्म विज्ञेयं देहभाजां भवांतरे ॥ १२० ॥ तथा लब्धात्मलाभस्य पुनः संस्कारयोगतः । द्विजन्मतापरिप्राप्तिर्जन्मसंस्कारजं स्मृतं ॥ १२१ ॥ शरीरमरणं स्वायुरंते देहविसर्जनं । संस्कारमरणं प्राप्तत्रतत्यागः समुज्झनं ॥ १२२ ॥ यतोऽयं लब्धसंस्कारो विजहाति प्रगेतनं । मिथ्यादर्शनपर्यायं ततस्तेन मृतो भवेत् ॥ १२३ ॥ तत्रसंस्कारजन्मेदमपापोपहतं परं । जात नो गुर्वनुज्ञानादतो देवद्विजा वयं ॥ १२४ ॥ --पवे ३९ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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