Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 8
________________ ५२६ . जैनहितैषीdiffmirmitiful मारक ४- क्रूरः षष्ठे क्रूरदृष्टो विलमाद्यस्मिन्त्राशौ तद्गृहांगे (गोब्राह्मण ) की जगह 'जिनादि ' बनाया व्रणः स्यात् । गया है और उससे यह सूचित किया है एवं प्रोक्तं यन्मया - जन्मकाले चिह्न रूपं तत्तदस्मि कि यात्राके समय उत्तरदिशामें यदि साधु विचिन्त्यं ॥ ११-१ " और जिनादिक होवें तो श्रेष्ठ फल होता इस पद्यके उत्तरार्धमें लिखा है कि 'इसी है। परन्तु इस तबदीलीसे यह मालूम न प्रकारसे जन्मकालीन चिह्नों और फलोंका जो हआ कि इसे करके ग्रंथकर्ताने कौनसी कुछ वर्णन मैंने किया है उन सबका यहाँ भी बद्धिमत्ताका कार्य किया है। क्या 'साधु' विचार करना चाहिए । वराहमिहिरने 'बृह- शब्दमें 'जिन' का और 'जिनादि ' शज्जातक ' नामका भी एक ग्रन्थ बनाया है जिस- ब्दोंमें 'साधु' का समावेश नहीं होता था ? में जन्मकालीन चिह्नों और उनके फलोंका वर्णन यदि होता था तो फिर साधु और जिनादि ये है । इससे उक्त कथनके द्वारा वराहमिहिरने दो शब्द अलग अलग क्यों रक्खे गये ? अपने उस ग्रंथका उल्लेख किया मालूम होता साथ ही, जिस गौ और ब्राह्मणके नामको है । ग्रंथकर्ताने उसे बिना सोचे समझे यहाँ उडाया गया है उसको यदि कोई ' आदि' ज्योंका त्यों रख दिया है। भद्रबाहुसंहितामै शब्दसे ग्रहण कर ले तो उसका ग्रंथकाने इस इस प्रकारका कोई कथन नहीं जिससे इसका श्लोकमें क्या प्रतीकार रक्खा है ? उत्तर इन सम्बंध लगाया जाय। . सब बातोंका कुछ नहीं हो सकता । इसलिए ५-ओजाः प्रदक्षिण शस्ता मृगः सनकुलाण्डजाः। ग्रंथकर्ताका यह सब परिवर्तन निरा भूल भरा चाषः सनकुलो वामो भृगुराहापराह्नतः ॥ १-३७॥ और मूर्खताका द्योतक है । ___ यह बृहसंहिता (अ० ८६) का ४३ वाँ ७-धीवरशाकुनिकानां सप्तमभागे भयं भवति दीप्ते पद्य है । इसमें 'भृगु' जीका नाम उनके वचन भोजनविघातउक्तो निधनभयं च तत्परतः॥२-३३॥ सहित दिया है। भद्रबाहुसंहितामें इसे ज्योंका इस पद्यमें सिर्फ 'निर्ग्रन्थभयं' के स्थात्यों रक्खा है । बदला नहीं है। संभव है कि नमें ‘निधनभयं ' बनाया गया है और इसका यह पद्य परिवर्तनसे छूट गया हो । अब आगे अभिप्राय शायद ऐसा मालूम होता है कि ग्रंथपरिवर्तित पर्याक दो नमूने दिखलाये जाते हैं:- कर्ताको निग्रंथ ' शब्द खटका है । उसने ६-श्रेष्ठो हयः सितः प्राच्यां शवमांसे च दक्षिणे। इसका अर्थ दिगम्बर मुनि या जैनसाधु कन्यका दधिनी पश्चादुदग्साधुजिनादयः॥१-४०। समझा है और जैनसाधुओंसे किसीको भय बृहत्संहितामें इस पद्यका पहला चरण ' श्रे- नहीं होता, इसलिए उसके स्थानमें 'निधन । ठे हयसिते प्राच्यां' और चौथा चरण 'दुद- शब्द बनाया गया है। परन्तु वास्तवमें निग्रंथका ग्गो विप्रसाधवः ' दिया है। बाकी दोनों अर्थ दिगम्बर मुनि या जैनसाधु ही नहीं है चरण ज्योंके त्यों हैं । इससे भद्रबाहुसंहितामें बल्कि निर्धन' और 'मूर्ख' भी उसका इस पद्यके इन्हीं दो चरणोंमें तबदीली पाई अर्थ है x और यहाँ पर वह ऐसे ही अर्थमें जाती है। पहले चरणकी तबदीली साधारण + यथाः-निग्रंथः क्षपणेऽधने बालिशेऽपि।' इति है और उससे कोई अर्थभेद नहीं हुआ । श्रीधरसेनः ॥ 'निर्ग्रथो निस्वमूर्खयोः श्रमणे च।' इति रही चौथे चरणकी तबदीली, उसमें 'गोविप्र' हेमचन्द्रः ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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