Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 6
________________ ५२४ यत्कार्य नक्षत्रे तद्दैवत्यासु तिथिषु तत्कार्ये । करणमुहूर्तेष्वपि तत्सिद्धिकरं देवतासदृशम् ॥ ३ ॥ भद्रबाहुसंहितामें इसके पूर्वार्धको उत्तरार्ध और उत्तरार्धको पूर्वार्ध बना दिया है । इससे अर्थमें कोई हेर फेर नहीं हुआ । इन छहों पयोंके बाद भद्रबाहुसंहिता में सातवाँ पय इस प्रकार दिया है: लाभे तृतीये च शुभैः समेते, पापैर्विहीने शुभराशिलने । वेध्यौ तु कर्णौ त्रिदशेज्यलग्ने * तिष्येन्दुचित्राहरिरेवतीषु यह बृहत्संहिता के ' नक्षत्र' नामके ९८ वें अध्यायसे उठाकर रक्खा गया है, जहाँ इसका नम्बर १७ है । यहाँ 'करण' के अध्यायसे इसका कोई सम्बंध नहीं है । इसके बादके दोनों पद्य ( नं० ८-९ ) भी इस करण - विषयक अध्याय से कोई संबंध नहीं रखते । वे बृहत्संहिता के अगले अध्याय नं १०० से उठाकर रक्खे गये हैं, जिसका नाम है ' विवाहनक्षत्रलग्ननिर्णय' और जिसमें सिर्फ ये ही दो हैं। इनमें से एक पद्य नमूने के तौर पर इस प्रकार है: रोहिण्युत्तररेवतीमृगशिरोमूलानुराधामघाहस्तस्वातिषु षष्ठ तौलिमिथुनेषूद्यत्सु, पाणिग्रहः । सप्तायन्त्यबहिः शुभैरुडुपतावेकादशद्वित्रिगे, क्रूरैस्त्रयायषडष्टगैर्न तु भृगौ षष्ठे कुजे चाष्टमे ॥ ८ ॥ (ख) बृहत्संहिता में ' वस्त्रच्छेद' नामका ७१ वाँ अध्याय है, जिसमें १४ श्लोक हैं । इनमेंसे श्लोक नं० १३ को छोड़कर बाकी सब श्लोक भद्रबाहुसंहिताके ' निमित्त ' नामक ३० वें अध्यायमें नं० १८३ से १९५ तक नकल किये गये हैं । परन्तु इस नकल करनेमें एक तमाशा किया है, और वह यह है कि अन्तिम श्लोक नं० १४ को तो अन्तमें ही उसके स्थानपर की जगह भद्रबाहुसंहिता में ' त्रिदशेज्य * • अमरेज्य' बनाया है । Jain Education International ( नं० १९५ पर) रक्खा है । बाकी श्लोकों में से पहले पाँच श्लोकों का एक और उसके बाद के सात श्लोकों का दूसरा ऐसे दो विभाग करके दूसरे विभागको पहले और पहले विभागको पछि नकल किया है । ऐसा करने से श्लोकोंके क्रममें कुछ गड़बड़ी हो गई है । अन्तिम श्लोक नं० १९५, जो नूतन वस्त्रधारणका विधान करनेवाले दूसरे विभाग के श्लोकोंसे सम्बंध रखता था, पहले विभागके श्लोकों के अन्त में रक्खे जानेसे बहुत खटकने लगा है और असम्बद्ध मालूम होता है । इसके सिवाय अन्तिम श्लोक और पहले विभाग के चौथे श्लोक में कुछ थोड़ासा परिवर्तन भी पाया जाता है । उदाहरण के तौरपर यहाँ इस प्रकरणके दो श्लोक उद्धृत किये जाते हैं: वस्त्रस्य कोणेषु वसन्ति देवा नराश्च पाशान्तदशान्तमध्ये | शेषास्त्रयश्चात्र निशाचरांशास्तथैव शय्यासनपादुकासु ॥ १ ॥ भोक्तुं नवाम्बरं शस्तमृक्षेऽपि गुणवर्जिते । विवाहे राजसम्माने ब्राह्मणानां च सम्मते ॥ १४ ॥ भद्रबाहु संहितामें पहला श्लोक ज्योंका त्यों नं० १९० पर दर्ज है और दूसरे श्लोक में, जो अन्तिम श्लोक है, सिर्फ ' ब्राह्मणानां च सम्मते ' के स्थान में 'प्रतिष्ठामुनिदर्शने ' यह पद बनाया गया है । ( ग ) वराहमिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में अध्याय नं ० ८६ से लेकर ९६ तक ११ अध्यायोंमें ' शकुन' का वर्णन किया है। इन अध्यायोंके पयोंकी संख्या कुल ३१९ है । इसके सिवाय अध्याय नं० ८९ के शुरू में कुछ थोड़ासा गद्य भी दिया है। गयको छोड़कर इनमें ३०१ पय भद्रबाहु संहिता के 'शकुन नामके ३१ वें अध्याय में उठाकर रक्खे गये हैं और उन पर नम्बर भी उसी ( प्रत्येक अध्यायके For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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