Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 11 12 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 7
________________ HARImm भद्रबाहु-संहिता ५२५ अलग अलग ) क्रमसे डाले गये हैं जिस प्रकार द्रव्योंसे पूजा करे । फिर अकेला अर्धरात्रिके कि वे उक्त बृहत्संहितामें पाये जाते हैं । बाकीके समय उस वृक्षके आग्नकोणमें खड़ा होकर १८ पद्योंमेंसे कुछ पद्य छूट गये और कुछ छोड़ तथा पिंगलाको अनेक प्रकारकी शपथें दिये गये मालूम होते हैं । इस तरह पर ये ग्यार- ( कसमें ) देकर पद्य नं० ४२।४३१४४ में दिया हके ग्यारह अध्याय भद्रबाहुसंहितामें नकल हुआ मंत्र ऐसे स्वरसे पढ़े जिसे पिंगला सुन सके किये गये हैं और उनका एक अध्याय · बनाया और उसके साथ पिंगलासे अपना मनोरथ पूछे । गया है। इतने अधिक श्लोकोंकी नकलमें सिर्फ ऐसा कहने पर वृक्ष पर बैठी हुई वह पिंगला यदि आठ दस पद्य ही ऐसे हैं जिनमें कुछ परिवर्तन कुछ शब्द करे तो उसके फलका विचार पद्य पाया जाता है। बाकी सब पद्य ज्योंके त्यों नं० १५ में* दिया है और उसके कछ नकल किये गये हैं। अस्तु । यहाँ पाठकोंके शब्द न करने आदिका विचार स ऊपर उद्संतोषार्थ और उन्हें इस नकलका अच्छा ज्ञान धृत किये हुए पद्यमें बतलाया है । इससे इस करानेके लिए कुछ परिवर्तित और अपरिवर्तित पद्यका साफ सम्बन्ध उक्त सात पद्योंसे पाया जाता दोनों प्रकारके पद्य नमूनेके तौर पर उद्धृत किये है। मालूम होता है कि ग्रंथकर्ताको इसका कुछ जाते है: भी स्मरण नहीं रहा और उसने उक्त सात पद्यों१-वानरभिक्षुश्रवणावलोकनं नैऋतात्ततीयांशे। को छोड़कर इस पद्यको यहाँ पर असम्बद्ध बना फलकुसुमदन्तघटितागमश्च कोणाचतुर्थाशे ॥२-८॥ दिया है। इस पद्यमें नैर्ऋत कोणके सिर्फ ततीय और ३- राजा कुमारो नेता च दृतः श्रेष्ठी चरो द्विजः । चतुर्थ अंशोहीका कथन है । इससे पहले दो गजाध्यक्षश्च पूर्वाद्याः क्षत्रियाद्याश्चतुर्दिशम् ५-४ अंशोंका कथन और होना चाहिए जो भद्रबाहु- यह पद्य यहाँ 'शिवारुत ' प्रकरणमें बिलसंहितामें नहीं है । इसलिए यह कथन अधूरा कुल ही असम्बद्ध मालूम होता है । इसका यहाँ है । बृहत्संहिताके ८७ वें अध्यायमें इससे पहलेके कुछ भी अर्थ नहीं हो सकता । एक बार इसका एक पद्यमें वह कथन दिया है और इसलिए अवतरण इसी ३१ वें अध्यायके शुरूमें नं० २८ · · इस पद्यको नं० ९ पर रखा है। इससे स्पष्ट है पर हो चुका है और बृहत्संहिताके ८६ वे अकि वह पद्य यहाँ पर छूटगया है। ध्यायमें यह नं० ३४ पर दर्ज है । नहीं मालूम २-अवाक्प्रदाने विहितार्थासद्धिः पूर्वोक्तदिक्चक्र- इसे फिरसे यहाँ रखकर ग्रंथकर्ताने क्या लाभ फलौरथान्यत् । वाच्यं फलं चोत्तममध्यनीचशाखा- निकाला है । अस्तु । इसके बदलेमें इस प्रकरणस्थितायां वरमध्यनीचम् ॥ ३-३९॥ का 'शान्ता...' इत्यादि पद्य नं० १३ ग्रंथकर्ता बृहत्संहितामें, जिसमें इस पद्यका नं० ४६ से छूट गया है और इस तरहपर लेखा बराबर है, इस पद्यसे पहले सात पद्य और दिये हो गया-प्रकरणके १४ पद्योंकी संख्या ज्योंकी हैं जो भद्रबाहुसंहितामें नहीं हैं और उनमें त्यों बनी रही। पिंगला जानवरसे शकुन लेनेका विधान किया * यथाः- "इत्येवमुक्त तरुमूर्ध्वगायाश्चिरिल्वरिल्वीहै। लिखा है कि,-'संध्याके समय पिंगलाके तिरुतेऽर्थसिद्धिः। निवास-वृक्षके पास जाकर ब्रह्मादिक देवताओंकी अत्याकुलत्वं दिशिकारशन्दे कुचाकुचेऔर उस वृक्षकी नये वस्त्रों तथा सुगंधित त्येवमुदाहृते वा ॥४५॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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