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स जिनाज्ञानुसार चलनेवाले सज्जनोंको तीन जगत्में किसीका भी डर नहीं है, कोई भी उन्होंका बाल भी पांका करनेमें समर्थ नहीं है. विवेकसे पाणी मात्रको अभयदान देनेवालाको कुल जगह अभय मिलाता है, यह बात निर्विवादसे ही सिद्ध है. मरने के समान दूसरा कोई दुःख या भय है ही नहीं. अपनका जो जो अनिष्ट है वा वा दुःख वा भय दूसरों को देनेके समान कोइ भी पाप नहीं है। सब जीवोंको अपने जान के समान गिनकर, किसीका भी अनिष्ट न करत जो उन्होंकी साथ परम मैत्री भाव धारन करते हैं उन्हीका ही जीवा सफल है, दूसरोंका नहीं ! ऐसा समझ शाहानपतवाले सजनोंको मैत्री भावका फैलाव कर व परको शांति-समाधि पैदा करनेकी दरकार रखनी दुरस्त है; क्यों कि वोही समस्त सुखका साधन है. - क्रोध-गुस्सा, मान-मगरूरी, माया-दगा-कपट, और लोभ-लालच इन कपायोंका पूरापूरा रूप - शोचकर इन चांडाल चतुकका सर्वथा त्याग करने के वास्ते सज्जन तत्पर होते हैं. कोधाग्नि, क्षण भरमें की हुइ मुकृत करनीकों जला देता है. मानरू५ पर्वत पर चडे हुवे प्राणी नीचे ही गिरते है-लघुता पाते हैं. माया शल्यता-दगाखोरी प्राणीको अनेक जन्म तक हैरान करती है.
और लोभ पिशाच प्राणीको प्राणांत कष्टमें डालता है. ऐसा समझकर सुज्ञ विवेकी जन समता जलसं क्रोधाग्निकों बुझाने के पास्ते, मृदुत्वरूप वनसे मान पहाडका चरा करनेके वास्त, सरलता