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पालनहारा चतुर्विध संघ तरह जग जयवंत श्री जिनशासनकी उन्नती करने के बदले में वै तो तदन आज्ञा विरुद्ध वर्तनसें पवित्र शासनकी हिलना-दी-मरखरी करनेहारे हैं, उसे वै भभुआज्ञापालक श्री संधके बहार है. पवित्र आज्ञाधारक श्रीसंघ तो श्री तीर्थकरजीको भी मान्य है, जैसे संघका अनादर तीन भुवनमें भी __ कौन कर सकता है ? अगर कोई मोह मदिराकें जोर सें अनादर
करतो वो आखिर क्यों करके सुखी हो सके ? वास्ते स्वकल्यान चाहनेहारेको कवी भी पवित्र साधु-साध्वी-श्रावक श्राविकारुप यस्त या समस्त श्री संघकी मखरी-हावाजी-दिल्लगी-निदा-अवज्ञादि आप खुदकों करनी नहीं, करानी नहीं और अनुमोदना करनी या संमती भी देनी नहीं; किंतु यथाशतिः उस पवित्र संघकी भक्ती करनी; करानी और अनुमोदनी स्वपरकी उन्नति रचनेका ये अति सुलभ मार्ग है. जो सुज्ञजन ॥ विवेक युक्त श्री संघकी भक्ति करता है वो परम भतिरससे सकल कर्म दूर करके अक्षयपद पाता है. श्री संघ जंगम तीर्थ रुपहै, उससे मोक्षार्थीजनों को अवश्य सेवन करने के योग्य है.
तीसवाँ-पुरक लिखनम् सर्वज्ञ भाषित और गणरादिक महापुरुष गुंफित आगम-पंचांगी समेत, भकरण या ग्रंथोंका लिखना, लिखवाना और लिखनेवालेको मदद देना ये सुश्रावकोंका अवश्य कलव्य है. वै शास्त्र ज्यौं शुद्ध लिखे जावै त्यों खास ध्यान देनेकी जरुरत है. आजकल हाथोंसें लिखे जाते हुवे ग्रंथ बहुत करके