Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 299
________________ २८१ माता [ पांच समिति और तीन गुप्ति- ] का परम आदर करनेकों वै कैसे लब्ध लक्ष्य होने चाहिये ? उसकेवास्ते तो पवित्र जैनागम प्रमाण है- उक्त आगोंमें सत्य-निर्दभ मुमुक्षुके लिये जो जो नीति रीति बतलाइ गई हैं. सो सो तमाम संपूर्ण आदरसे आदरनेसेंही सची निग्रंथता टिक सकती है. उस विगर केवल लिंगधारीपना तो मात्र विडंबनारुपही है. महालब्धिपात्र श्री गौतमस्वामीके समान उत्तम वेप धारण कर लिये परभी जो इंद्रियों के दास हैं। पवित्र ब्रह्मचर्यके घातकारी-स्त्री परिचयादिकको निःशंकपनेसे सेवना करते है और जो क्रोधादि कपाय तापको शांत करनकी एवजीम उलटे बढाये ही जाते हैं, लोगलाज, धर्मलान मर्यादा ] को लोप संसारकी वृद्धि करते हुए जीवन गुजारते हैं, श्री अरिहंतादिक पंचकी साक्षीसें पवित्र महावत धारण कार लिये परभी उनसे विरुद्ध वर्तन करते है, क्षमादिक दसविध यतीधर्मका आदर नहीं करते हैं, हरामखोरी करनेवाले पहेलकी तरह प्रमादविवश वर्तन रखकर पंचाचारका अनादर करते हैं. यावर अष्ट-प्रवचन माताका भी कुपुत्रकी मुवाफिक तिरस्कार करते हैंऐसे अनार्य आचरणवालोंका द्रव्य लिंगमात्रसे अच्छा किस तरह हो सके वो समझना कुच्छ मुश्कील नहीं है. तात्पर्य यही है कि सद्गुणोंके सिवाय लिंग मात्र से कुच्छ भी श्रेय होनेका नहीं, ऐसा सुज्ञ सज्जनमंडल सत्य नीति राति उपयोगमें लेकर सद्य स्वपर उपकार साधनेका कभी नहीं भूलेंगे.

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