Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 321
________________ ३०३ गुण (पृद्धि संपूर्ण प्रकट होनेसें जिन्हने अचल सिद्धिकी स्वाधीनता प्राप्त करली है वै सिद्ध परमात्माके नामसे पहिचाने जाते हैं. वै अनंत-अक्षय-अव्यावधि शिव संपत्ति के शाश्वत भोक्ता हैं.” . २८२ " सम्यम् ज्ञान, दर्शन और चारित्रके आराधनसे विशुद्ध परिणाम योगद्वारा शुल ध्यानके जोर समरत कर्म दूर कर परमात्मदशाकों प्राप्त भये हुवे सर्व सिद्ध महाराजजी सिद्धिस्थानमें एक जैसे शिवमुखके भोक्ता हैं, वै सभी सिद्ध परमात्माओंको हमारा त्रिकरण शुद्ध निरंतर नमस्कार हो! हरिप्रश्न और सेनप्रश्नका उद्धरित सार तत्त्व. १ श्रीजिनपतिमाजीको चक्षु टीके वगैरका लगाना गरम किये हुवे रालफे रस से किया जाये तो आशातना होनेका संभव है। चास्ते निपुण श्रावकों को मुनाशीव है कि रालकों उमदा घृत अगर तेलमैं मिलाके कूटके नरम बनाकर पोछे उसद्वारा टीके चतु वगैरः पोटावें. २ नींबूके रसकी पुट दिइ अजवायन दुविहार पञ्चख्वाणमें और आयविलमें खा लेनी नहीं कल्पती है यानि न खानी चाहिये. ३ तीर्थकरजी जिस देवलोकसें च्यवकर मनुष्य गतिमें आ वहां वो देवलोकके जीवोंकों जितना अधि ज्ञान होव उतना अब

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