Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 326
________________ ३०८ ३५ वांदणे देनेकी वस्त विधि समालने के लिये खुल्ले मुंहसे वोलनेपरभी अप्रमादी होनेके सववसे इयविहीका दंड नहीं आता है. ३६ जो साधु वस्त्रको थीगडा-कारी देव या कारी देनेवालेकी अनुमोदना करै उनको बहुत दोषीकी प्राप्ति होती है; सर्वव कि तीन थीगडे के उपरांत चौथा थीगडा देनेवाले मुनिकों श्री निशीथसूत्रजीके पहिले उद्देशे प्रायश्चित्त कहा है. ३७ निरंतर बहुतसें जीव मुसिम जावै उससे मुक्ति सकडीसंकोचत नहीं होती? और संसार खाली नहीं होता है ? ऐसा पूंछनेको यही उत्तर है कि, जैसे बद्दलके जलमें घीसी गइ हुई पृथिवीकी वहुतसी मिट्टी समुद्रमें चली जाती है, तो भी उससे समुद्र पूरा न गया और पृथिवीपर खड्डे भी नहीं पडे, उसी तर वो भी समझना. ३८ छ: महीनेसे ज्यादा केवल ज्ञानीपणेसे रह सकै सो अंतमें केवली समुद्घात करै, उनस ओछी-कम स्थितिवाले करै या न भी करै! ५ १९ राइ प्रमुख उत्कट द्रव्य मिश्रित होनेसें काजिक वटका. दिक वस्तुका काल मान दृद्ध परंपरासे दो रात्रि या बारह महरादिका कहा जाता है. __ ४० जो श्रावक मरण समय पर्यंत निरतिचार सम्यक्त्व पालन करै तो वो वैमानिक देवही होता है. उस सिवाय दूसरी- यथासंभव गतिमेंभी पैदा हो या महाविदेह क्षेत्रादिक मनुष्यपणाभी पावे. ___४१ आश्विन-कुवार महीने के अस्वाध्याय दिनत्रय (बहुत

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