Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 301
________________ २८३ पास्ते अद्वितीय लोचन जैसे मेरे आत्माको भी मैने न पिछान लिया.. (६) शुरुमें भुक्तनकी वरूत रम्य, मगर पीछेसें निरस ऐसे इंद्रियोंके विषयोनें-परमात्मा-परमज्योति और जगज्जेष्ट ऐसे भी मेरेकों गलिया. (७) मै और परमात्मा ऐसे दोनु ज्ञानके लोचनरुप हैं तो मै परमात्मा स्वरूप प्राप्त करनेके पासे वो परमात्माकों जानना चाहता हुं. ' (८) अनंत चतुष्टय यानि अनंत ज्ञान, दर्शन-चारित्र वीर्य आदि गुणोंका समूह मेरी सत्तामें रहा हुवा है, और अरिहंत सिद्ध परमेष्टिको वोही प्रकट भया हुवा है. हम दोनूमें-परमात्मा और मेरेमें इतना भेद शक्तिसत्ता और व्यक्ति-प्रकटभावके अभावसें है. शशिसे समान और व्यक्तिस भेद है. कहाहै कि-विशेष रहित-. सामान्य और विकार-उत्पाद व्ययादिकसे उत्पन्न होते मतिज्ञाना-- दिक आत्मा के गुण पूर्वमें नहीं थे ऐसे नहीं, और पूर्वकालमें नहीं थे ऐसे कितनेक नये भी पैदा होते हैं; परंतु स्वाभाविक विशेष अनंत ज्ञानादिक अभूतपूर्व-पूर्वकालमें न भये हुवे-नवीन हैं. यानि आत्मद्रव्यमें सामान्य रीतिसें मतिज्ञानादि गुण भूतपूर्व-पूर्वमें विद्यमान भी कहे जावै. अभूतपूर्व-अविद्यमान नवीन भी कहे जावै. इस मुजब नय विभागसे करके वस्तुस्वरुप जानना योग्य है. पुनः असा शोचैकिः-शुद्ध द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसें देख लु तो में नारक नहीं, तिथंच नहीं, मनुष्य नही और देव नहीं; परंतु सिद्धात्मा हुं. नारकादि अवस्था सर्व कर्मका पराक्रम है. ..

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