Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 307
________________ २८९ः सार शिक्षासंग्रह. २" सज्जन मुख अमृत लौ, दुर्जन विषकी खान" २ " नारी चित्त देखना, विकार वेदना; जिनंदचंद देखना, ___ शांति पावना." ३ “जननी जणे तो भक्त जण, का दाता का सूर; ... नहींतो रहजे वांझणी, मत गुमाचे नूर." ४ "ज्ञान विना व्यवहारको, कहा बनावत नाच ? र कहे कोड काचकों, अंत काच सो काच!" .५ " रवि दूजो तीजो नयन, अंतर भावि प्रकाश; करो धंध सब परिहरी, एक विवेकअभ्यास." ६ “क्षमा सार चंदनरसे, सिंचो चित्त पवित्त; दयावेल मंडपतले,-रहो लहो सुख मित्त." ७ “मौनं सर्वार्थ साधनं सबसे बडी चूप." ८"बालादपि हितं ग्राह्य, एक बालकका भी हितकारी वचन - हो तो उसको कबूल करना चाहिये." ९ " जनमन रंजन धर्मको, मूल न एक बदाम." १० " दुखमें सब को प्रभु भनें, सुखमें भजे न कोय; __ . जो सुखमें प्रभुकों भजे, तो दुख कहांसें होय ?" . ११ “नमाणात प्रकृति विकृति र्जायते चोत्तमानाम्-उत्तमजनोंकी प्रकृति प्राणांततकभी विकृतिवंत नहीं होती है !" १२ " संवेग रंग तरंग झीलै मार्ग शुद्ध कहे बुधाः

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