Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 305
________________ ૨૮૭ સાત્ વદ્દી પરમાત્મા નૈમષ માર્સ જિયા હૈ; વાસ્તે મળવા પા हसवाले मुनियोंकों वही प्रभुजीका ध्यान करना, और अन्य सर्व शरण छोड़कर उन्हीकाही एक शरण ग्रहण कर उनकी अंदर आपत्रे अंतरात्माको जोडकर उनकोही विशेष प्रकारसे जानना-दृष्टिगोचर करना. जो बानीको अगोचर-न वर्णन किये जाय वैसे- अव्यक्त, अनंत नाश-विगरके, शब्दरहित, अजन्मा और संसार भ्रमणसे रहित है ऐसे परमात्माका विकल्परहित चितवन करना जिनके ज्ञानके अनंत भाग में द्रव्यपर्याययुक्त लोकालोक आ रहा हुवा हैं परमात्मा तीनलोक के गुरु होवै यानि जिसका ज्ञान अनंत है वही त्रिजगद्गुरु हो सकें. एस ध्यान करनेहारा मुमुक्षु मुनि परमात्मा के स्वरूपमें अपना मन लगाकर उनके गुणसमूहसें रंजित भया हुवा आप अपने आत्माको उनकी अंदर उन्हीका रुप प्राप्त करनेके वास्ते जोड देता है. इस मुज निरंतर मरण करता हुवा और उस परमात्माका जिसने स्वरूप पहिमान लिया है जैसा योगी ग्राह्य यानि ये परमात्माका स्वरूप मेरे ग्रहण करने लायक है और ग्राहक यानि इनकों ग्रहण करनेवाला मैं हूँ, जैसे भाव भेदरहित तन्मयपणाकों पाता है. द्वैतभाव नहीं रहता है. ध्यान करनेहारा मुनि अन्य सर्व शरण छोडकर यानि उसीकाही एक शरण ग्रहण कर उन परमात्मा के स्वरूपमें इस तरह लीन हो जाता है, कि ध्याता यानि ध्यान करनेहारा और ध्यान इन दोनूका 4

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