Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 309
________________ २९१ २८ " न्याय, नीति, सत्य, प्रमाणिकता ये प्रार्णाके उदय २९ " दी दृष्टि-दीर्घदर्शीत्व-अगमतीपना ये आते हुवे दुःखोकों रोकनेका उत्तम साधन है." ३० " कुशीलता ये प्रकट दुःखका, और सुशीलता ये सुखका ३१ " विवेकविकल पाणी पशुकी गिनतीमें गिना जाता है." ३२ " लोभका थोभ यानि अंत नहीं है." ३३ " इच्छा आकाशकी तरह अंतविगरकी है." ३४ " तृष्णासे उपरांत कोइ जबरदस्त दूसरा दर्द नहीं है." ३५ " रात्रिभोजनमें महान् पाप है." ३६ " रागद्वेषका क्षय करके शुद्ध होना ये सब तीर्थंकर श्री जीका सनातन उपदेश है. वै आप विशुद्ध होकर दूसरोंकों विशुद्ध होने का फरमाते हैं." ३७ “पंडितोपि पर शत्रु न मूखों हितकारक यानि पंडित शत्रु होवै तो अच्छाः मगर मूर्ख दोस्त होवै सो बहुत बुरा" ३८ " भूखके साथ दोस्ती करनेसें कदम दर कदम क्लेश होता है." ३९ " नारी नरकका द्वार है !" ४० " कर्मको शरम हैही नहीं !" ४१ " संप वहाँ ज५ है. कुसंपका मुँह काला करो."

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