Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 308
________________ २९० 11 तेहनी सेवा कीजियें, जेम पीजियें समता सुधा. १३ " हीणा तणो जे संग न तजे, तेहनो गुण नावे रहे, ज्यौं जलधि जलमां भळ्युं, गंगा नीर लूणपणं लहै." १४ " बुरा बुरा सब को कहै, बुरा न दीसे कोय ! जो घट शोधुं आपका, (तो) मुझसे बुरा न कोय !! " १५ “ खड्डा खोदै सोही पडै ! " " १६ " किसीकी भी निंदा नहीं करनी, यदि करनी चाहो तो खुद आपकी ही निंदा करियो. " १७ "सबका भला चाहो. कवीभी किसीका बुरा नहीं चाहना १८ " औगुन पर जो गुन करें, सो विरले जग जोय ! " १९ “ किसीको मर्मभेदक, कटु " या बिभत्स भाषण नहीं कहना. " २० " कोई भी कार्य सहसा - बिगरविचारे मत करियो. " २१ "दगा किसीका सगा नहीं, न किया हो तो कर देखो !" २२ " गुस्सेबाज और कटु बोलनेहारेकों चांडाल समान गिनो." २३ " धर्मसें जय और पापसें क्षय होता है. " २४ “ परद्रव्यहरनके जैसा कोई भारी पाप नहीं है. " . २५ “ शीलभूषणके जैसा एक भी दूसरा अमूल्य भूषण नहीं. " २६ " संतोषसें कोई बढिया सुख नहीं है. " ૨૭ जर बिगर नर खर जैसा है. " सदुधम समान कोइ "6 વાંધવ નાં હૈ.

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