Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 315
________________ २९७ १२० " अखंडवत पालनहार जैसा कोई भाग्यशाली नहीं.". १२१ "व्रत खंडन करके जीनेवाले जैसा कोई कमानसीब नहीं." १२२ " सत्य, मिथ और विनीत भाषण जैसा कोई- उत्तम वशीकरण नहीं है." - १२३ " मध्यस्थता जैसा कोई श्रेष्ट मार्ग नही है." १२४ " दुर्जनकाह झूठा-पतंगरंग जैसा समझ लो." . १२५ " कलिकालमें भी कुलीन पुरुष मेरु जैसे धीर होते हैं." · १२६ " धनवंत होने पर भी कृपणता रख्खेसाशोचनलायक है." १२७ “ धन थोडासा होवे तोभी उदारता बुद्धि होवै सो प्र शंसनीय है." १२८ " यथाशक्ति यतनीयं शुभे-शुभकार्यमें शति गुंगास मु जब यत्न-उद्यम करना." १२९ " विवेक जैसा कोइ सन्मित्र नहीं." :१३० " बहुरत्ना पसुंधरा" १३१ " भरेपूरे हो सो छिलकात नहीं." १३२ “निंदा कर सो हो नारकी." । १३३ " पथ्य आहार समान दूसरा कोइ औषध नहीं." १३४ "कर्म समान कोई कष्टसाध्य रोग नहीं."-धर्म समान कोई औषध नहि.' - १३५ "पंथ समान कोई जरा नहीं.". - १३६ “ अपमान समान कोई दुःख नहीं." १३७ " क्षुधा जैसी कोई प्राणघातक पीडा नहीं.''

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