Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 318
________________ १६१ " दयालुत्व-हृदयमें कोमलता दया रखनी" १६२ " मध्यस्थता-निष्पक्षपातती-न्यायधुद्धिस तटस्थता रखनी" . १६३ " चाहे वहांसें भी गुण ग्रहण करने के लिये दरकार रखनी ___ और गुणरागी हो रहना.". __ १६४ " सत्य, मतलब जितना, और शास्त्रसंमतही बोलना." - १६५ "स्वपक्ष स्वकुटुंव पुष्ट-धर्मधुरत होवै पंसी इच्छा रखनी और अमलमेलनी." ___ १६६ " दीर्घदर्शी होना, बिना विचारे किसी काममें कूद न पहना, मगर परिणाम-आखिर (Result) क्या होगा वो शोच कर काम करना." १६७ " तवज्ञान मिलाने के वारते पूर्ण यत्न करना और विज्ञान माप्त कर लेना." १६८" वृद्ध-शि-पुरुषोंके कदमानुसार चलना स्वच्छंदी न हो ना-यत:महाजनोयेनगतःसपंथाः': १६९ " विनय करना-गुणीजन या वयोवृद्ध तपोद्धादिककी योग्यता समालकर समयोचित नम्रता मृदुतादि उचित विवेक करना, हृदयमें गुणका बहुमान करना.. १७० " कृतज्ञ-किये हुवे उपकारको न भूल जाना, वीभी कृrt न होना." __१७१ "परोपकाराय सतां विभूतयः, दुसरेका उपकार दुः। दूर करना वगैरः अपनी शक्ति के अनुसार करना परोपकार बुद्धिमें तत्पर रहना."

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