Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 316
________________ १३८ " सदनान समान कोइ अजूट धन नहीं. " और ___आशा समान कोइ बंधीखाना नहीं.” १३९ " मोहके जैसी कोई कठीन जाल नहीं.” . १४० " सद्भावना समान कोई उत्तम रसायण नहि. १४१ "चिंता और पिता दोनु मनुष्यदेहको जलानेमें वरोवर है." १४२ " शित्तशुद्धिके वास्ते व्यवहारशुद्धिकी खास जरूरत है." १४३ " शुद्ध कपडेपर जैसा रंग उमदा चढ़ सकै वैसा मैले कपडे पर न चढ सकैगा और उमदाभी मालुम न होवेंगा." १४४ "आनंदधनप्रभु कारी कामरीआं, चढत न दूजारंग." १४५ " धूट घाटकर आयने जैसी बनाई गई दीवारपर जैसा चित्र निकाला गया सुंदर लगै, वैसा खाडे खड्डेवाली मैली दीवारपर सुंदर नहीं लगता है यानि बेहुदा लगता है. धर्मरंगभी उसी तरह यानि उपरके कथन मुजप स्वच्छ और अधिकारी मनपर ही चढ सकता है." परंतु मलीन मनपर धर्मरंग नहीं चढ़ सकता है। वास्ते अवश्य अंतर शुद्धि करनेकी सबसे पहिले जरुरत है. १४६ “ जैसे विरेचन-जुलाब लिये विगर अंतरशुद्धि नहीं होती है तैसेही समतादिद्वार। कषायमल दूर किये बिगर मन शुद्धि नहीं हो सकी है." १५७ " राग और द्वेष मोहरानाके पापी पुत्र और कपाय के भाई हैं." १४८ " रागकेसरीसिंह समान और द्वेष हाथी समान गिनाता है."

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