Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

View full book text
Previous | Next

Page 317
________________ १४९ "मद, भय और रोष या विषय, कपाय और आशंसा ये महान् त्रिदोष-सनिपातरूप हैं, " इनको त्याग कीये विगर कल्याण नहि. १५० " रोगीकों जैसे गुणकारी दुध, घी विकार करते है, वैसेही अयोग्य-ना लायक-कुपात्रकों फायदेमंद ज्ञानादिभी विक्रिया करते हैं. वास्ते धर्मके लायक हुवा जाय वैसे सु पात्र होने की जरुरत है." १५१ "सर्वज्ञकथित गुणोंका सेवन करनेसें जीव धर्मके लाय क होता है." १५२ “ धर्मार्थी जीवोंकों क्षुद्रता यानि पराये छिद्र-दोष देख. नेकी बुद्धिका सर्वथा त्याग कर देना." १५३ " शरीरके वास्ते योग्य साओचेती रखनी योग्य है क्योंकि धर्मार्थकाम मोक्षाणां, शरीरं साधनं यतः” । -१५४ " सौम्यता-शीतलताधारन करनी,रौद्र आकृती छोड़ देनी.'' १५५ " लोकप्रिय हो सकै वैसी अच्छी मर्यादा संमालनेमें न चुकना, लोकविरुद्ध कार्यको बिलकुल छोड देना." १५६ " किंचित भी क्रूरता न रखनी-दयाई चित्तवंत हो रहना." १५७ " पाप और अपवादसें बहुतही डरते रहना." १५८ " शठता, छल, प्रपंच, दंभ, विश्वासघात वगैरःका त्याग . करना." १५९ " दाक्षिण्यता आदरनी गुदिककी मर्यादा लोप नही देनी” १६० " लज्जा, मर्यादा समालनी."

Loading...

Page Navigation
1 ... 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331