Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 306
________________ ૨૮૮ अभाव होनेसें ध्येयकी साथ एक्यता माप्त होती है; अर्थात् ध्याता -ध्यान-ध्येयका भेद नहीं रहता है। यानि आपही ध्येयरुप होता है. जिस भावमें आत्मा परमात्माम अभेदपनेसें लीन होते है उसीही समरसी भाव-आत्मापरमात्माका समानता भाव है. वही आत्मा परमात्माका एकीकरण है, समरसी भावसे आत्मा परमात्मा होता है। एकीकरणमें आत्मापरमात्माके शरण सिवाय दूसरा शरण नहीं लेता. उसीमेंही उसीका मन लीन हो गया हुवा होता है. उसीकेही गुण (परमात्मा जैसे और परमात्मा जितनही अनंत) उसीम होते हैं. उसीकाही शुद्ध स्वरू५ ( बरावर ) अपना स्वरूप होता है, वो और ये एकस्वरुपवाले होनेसें ये, वो, वही है इस मुजय परमात्माके ध्यानसें आत्मा परमात्मा होता है... जिन परमात्माके ज्ञान विगर प्राणी जरुर जन्मरुपी वनमें भ८कते है और जिन परमात्माको जान लेनेसें तुरंतही इंद्रगुरु-वृहस्पतिसे भी ज्यादे महत्ता मिलती है, वही परमात्मा साक्षात् सकल लो. फके आनंदविलास है. उत्कृष्ट ज्ञानरूप प्रकाश है. रक्षक है. परमपुरुष है. जिनका स्वरुप भी न चितवन किया जाय पैसे परमात्मा है. इस मुजब ध्यानमें निरंतर भावनामें जन्म जरारहित परमामाको ध्यानमें सदा ध्याते है, भावते है, वो सीध्यान कहाजाता है.

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