Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 298
________________ २८० पायावरी-दंभी मायादेवीके भक्तोंकी तरह धर्मके बहानेसें मुग्धजनाको ठगनेमें महा पाप है असा समझकर अच्छे भाग्य योगस माप्त हुवे साधु वेष ( भेख) को भजनेके लिये भवभीरु मुनीजनोने सतत प्रयत्न करना योग्य है. " उत्तम संगे उत्तमता वधे" ये वृद्धवाक्य प्रमाण कर जिस तरह जयवंत जैनशासनकी प्रभावना होवै उस तरह मुमुक्षुवर्गको समय अनुसरके चलनेकी प्रार्थना है. और आशा है कि पो ( प्रार्थना ) सफल ही होगी. - . जिनके उपर केवल जैनकोमकाही नहीं; किंतु समस्त आलमका आधार है, वैसे महात्माओंका वर्तन कैसा उत्तम प्रकारका होना चाहिये ? उन्होंकी रहनीकहनी कैसी एक समान चाहिये ? -७द्रत घोडे की तरह उलटे रखोकी तरफ लुटे हुवे मन और इंद्रियोंकों काबूमें रखनेके लिये उन्होंको कैसा सावध रहना चाहिये ? चिंतामनि सदृश नवकोटि शुद्ध ब्रह्मचर्यका रक्षण करनेके वास्त नव ब्रह्मवाडी उन्होंकों कैसी शुद्ध पालनी चाहिये ? निर्मल स्फटिकरत्न समान शुद्ध आत्मस्वरुपभाव प्रकट करनेके लिये उन्होंको पंडाल चौकडी [ क्रोध-मान-माया-लोभ ] का सर्वथा त्याग करके कैसी निष्कपाय वृत्ति धारण करनी चाहिये ? निर्मल धर्म धूरीण होकर अहिंसादि पंच महाव्रतोंका अपार भार कैसी साहसी कतासे निर्वहन करना चाहिय ? पुनः पवित्र पंचाचार आप खु. दकों पालनेके लिये और और मुमुक्षुवर्गके पाससे प्रतिदिवस पलानेके वास्ते वै कैसे प्रयत्नशील चाहिये ? परम पवित्र प्रवचन

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