Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 296
________________ ૨૭૮ श्री वीतरागवचनानुसार नियममें रखने से क्षणार्द्ध में प्राणी स्वसमीहित (वांच्छित) साध्य कर सकता है. और उससे विरुद्ध वर्तन रखनेसें संसारचक्र वारंवार छेदन भेदन होता है, उसपर श्रीउपदेशमालाम कंडरिक और पुंडरिकका दृष्टांत खास योध लेनेलायक है, उसको आस्मार्थी सज्जन वहांसें पढ लेना. औसा समझकर स्वहिताकांक्षी कौन मुमुक्षु सज्जन उक्तयोगोंका दुरुपयोग-स्वच्छंद वर्तन कर भवभ्रमण बढाना पसंद करेंगे ? कभि नहीं ! असा कौन मूर्खशिरोमणि हो कि चिंतामनिरत्न कव्वेको उडानेके वास्तेही फीक देवेगा? अँसा कौन बुद्धिका बारवटीआ होवैकि गजराजको छोड गदहेपर स्वारी करनी कबूल करेगा ? असा कौन मतिहीन होगाकि सुवर्णस्थालमें धूल भरेगा ? असा कौन मति अंध होगाकि महासागर पार करनेहारे समर्थ जहाजको फर एक फलककी खातिर भर समुद्र में भांग डालेगा? उसी तरह यह दुस्तर दुःखोदधिसे पार फेर क्षेमकुशल भोक्षनगर पहुंचानेमें समर्थ सर्व विरति चारित्र९५ अवर प्रवहणउपर पूर्व पुण्ययोगसे आरुढ होकर पीछे कौन मंदमति केवल विषयतृप्णाका मारा स्वच्छंद वर्तनसें उसको अधबीच भांगडाल कर अपने आत्माको भी दुःख दरियाव साथ डुवादे ? असे प्रसंगपर प्रत्येक भवभीर आत्मार्थी सजनको कितना साओचेत रहनका है-उसका सुहृदयकों तो खियाल आये गिर रहेगा. ही नहीं. बाकी दुविदग्ध (अर्धदग्ध) के वास्ते तो समझानेके लिये ब्रह्मा सरीखे भी सफल नहीं हो सकता है तो फिर अपने जैसोंकी

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