Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 294
________________ २७६ उन्होंका हृदय सदा द्रवित ( भीगा हुवा) ही होता है, गंभीरतास सागरके समान होनेसें वै महाशय अन्यजनोंकों बोधकारी होने हैं, और अप्रमत्तताके उच्च शिखरपर राजित हो अन्य भव्य समूहका उत्तम प्रतिभूत होते हैं. उत्तम महानुभाव कमलकी तरह भोग पंकमें अलग ही रहते हैं, उसीरो ही वे शुद्धाशय मुक्तियुक्ती (क. न्या ) का पानीग्रहण करने योग्य होते है. अर्थात् ऐसे संविज्ञ-शु. खाशय सज्जनकाही मुक्तिकान्या स्वयं वरमाला आरोपन करती है और कायमके लिये अपना वल्लभ ( स्वामी) वत् स्वीकार के उनकों अनंत-अक्षय अध्यावाधमुखके भोरता करती है. परंतु जो महाशय इस विलक्षण स्वभावके हैं उन्सं तो मुतिकन्या दूर ही रहती है. जाने गुनके द्वैषीही होय उसीतरह गुणीजनोंका सहवास भी जो लोग नहीं करते हैं, जाने दोपकेही पक्षपाति होय. उसी तरह जिनको दुष्ट मनुप्योंकीही सोबत पसंद है, जो प्रमाणिक पंथ छोडकर अममाणिक मार्गकाही अवलंबन कर रहते हैं, सद्गुणीकी स्तुति न करते अन्यायी और दुराचारी दुर्जनकीही खुशामत किया करते हैं, यावत् आत्मश्लाघा और परापवाद करनेमेही कुशलता व्यय करते है। वैसे स्वच्छंदी साधुजनपर परम न्यायी प्रभु किसतरह प्रसन्न होवें ? जो शांति-सुखदायक भवभीतीकारक अमूल्य उपदेश दानसें भव्यजनोद्धारक परमशांत मुदालंकृत श्री जिनेश्वरादिककी परम समाधिकारक सन्मुर्तिकी उचित भक्ति-सेवा बहुमानादिकका आपमतिसें अनादर करके उत्प

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