Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 287
________________ तपासलो. प्रमाद पयारी छोडकर अप्रमाद वनदंडसे मोह राक्षसका निकंदन कर अपना और अपने आश्रित भव्योका संरक्षण करो. नहीं तो ये मस्त हो रहा हुवा मोहनिशाचर अपना और अपने नि. राधार सेवकोंका सब कुछ देखते देखते ही छिन लेगा. वास्ते आप लोग अच्छी तरह जागत होकर अपना और दूसरोंका संरक्षण करो. सुज्ञेषु किंबहुना ? ! असल फकीरी.. ". सची फकीरी कहो या सच्चा साधुत्व कहो, मगर वो माप्त होना __ जीवकों बहुत ही मुश्किल है; क्यौ कि जब कुल उपाधियोंको जला जलि देकर अपना मन-बचन-तनको अवंचकपनेसें अध्यात्म-योग - पुष्टिके पास ही प्रवनिमें आवै, तभी ही सची फकीरीकी ल. हेजत आ सकती है. उपाधिसे मुक्त हो गये हुपे सच्चे फकीर, फीकरके साथ कैसा संबंध रखते है सो इस छोटेसे द्रष्टांतसे स्पष्ट मा लुम हो जायगाः - फिकर सबको खा गई, फिकर सपका पीर; . - फिरकी फाकी कर, सोही पीर फकीर. . १ शिर मुंडाडाला; मगर मनको नहि मुंडाडाला तो शिर मुंडपानेसे कया शुकर हुपा ? योग लिया मगर भोगको साफ न छोड दिया तो योग लेनेसे कया कमाया ? सच तपास करनेसे तो पात्रके गिर योग शोभारुप ही नहीं मालूम होता है। मगर फजीतील व.


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