Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 268
________________ २५० हान् दुर्दशा पाता है. आपके पूज्य पूर्वज सुशीलताके जो सख्त नियमोंकों अनुसरतेथे उनकों अलग रखकर केवल मरजी मुजब कुशीलजनीकी सोबत कर कुशीलताको सेवनकरने लगे हो, आपके या अपने पूज्य पूर्वज जब सुशीलजनोंको कल्पवृक्ष कामकुंभ या मंगलकलश अथवा कामधेनु-सुरधेनु और चिंतामणिरत्न समान गिनकर समझसह आदरपूर्वक सेवन करतेथे, और स्वहित सीधनक वाले वैसे सत्पुरुषोका शरन लेतेथे, तब आजकल तो दृष्टिराग जोरस बहुत करके उस्से विपरीतही मालुम होते हैं. पहिले के पुण्यशाली जन गुणरत्नोंको झौहरीकी तरह परख लेतेथे, और अभीके अर्धदग्ध उससे उलटाही करते हुवे नजर आते हैं। इससे दिनपरदिन परिणाम बुरा आता हुवा नजर आता है; क्योंकि'गतानुगतिको लोको, न लोकः पारमार्थिकः' गाडरीयेप्रवाहकी तरह ज्यौं चले सौ चलेही चले. परमार्थ देखने करनेका कुछ नहीं रहता है. इस तरह अपना श्रेय नहीं सधाया जावै. अपने श्रेयका उत्तम रसता तो यही है कि-अनादिकी अतिमिय स्वच्छंदता छोडकर परम पवित्र सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रोंकों मान देकर स्वपरको तिरानेमें समर्थ सद्गुरुओंकी अति नम्र भावसे सेवना करके उन्होंकी अमृतसमान हित वानी समझकें अति आदरसे कर्णपुरद्वारा पी पीके पुष्ट बनकर उनके फलरुप अपनी अनादिकी गफलतमें चली जाती हुई भूलें सुधार-उनको अच्छितरह जानकर, उनको त्याग करनमें तत्पर हो, त्यागकर, उत्तम गुणगोका निधान जो अपनेही

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