Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 280
________________ રહૃર मिति सजेंगे ! जैसी अमूल्य सेकन्ड कब मोप्त होगी कि जब अनादि पिय कुसंगको विलकुल जलांजली देकर सत्संग भजनका ६६ निश्चय करेंगे! . यह बात अनुभवसिद्ध है कि अपन जहांतक महामलीनता; जनक, कुसंग तजकर सुसंगति सजेंगे नहि, वहांतक अपनकों कुबुद्धि देकर दुर्गातमें ले जानेवाली कुमतिके पाश से छुटकर सुबुद्धि देकर सुगतिमें ही लेजानेवाली सुमतिके अपन कभी स्वामी न हो सकेंगे। सुमतिके ६८ संबंध विगर अपन दोपपासनाको दूर कर शुद्ध गुणपासनाको धारन न कर सकेंगे. दुष्ट दोषवासना त्यागन किये बिगर और शुद्ध गुणवासना अंगिकार किये विगर अपन कभी परदोष देखे बिगर या उनी दोषोंकों ग्रहण किये बिगर रहने के नहीं और शुद्ध गुणरत्न या शुद्ध गुणिजन होने परभी अपन उनको देख शकेंगे ही नहीं. तो पीछे गुणरत्नका ग्रहण करना तो क्यों करके ही बनेगा ? जहांतक परदोषग्राहक बुद्धि प्रबल वर्तती है, वातक गुणग्राहकपना नहीं आ सकता है; क्यों कि परस्पर विरोधी है वास्ते नहीं आसकता है. जहांतक शुद्ध गुण ग्राहक बुद्धि नहीं प्रकट होगी, वहां तक सत्संग रुचिके पात्र हुवा ही नहीं जाता जहां तक आश्रय करने लायक शीतातिशीतल छायावाले कल्पवृक्ष समान संतसमागम रुचेगा नहीं, यहांतक अमृतका तिरस्कार करै वैसा अतिमिष्ट-मधुर सत्य धर्मोपदेश कर्णगोचर होवे ही नहीं. जहांतक आभिनव अमृत समान सत्य धर्मोपदेश सुना नहीं, यहांतक तत्त्व

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