Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 282
________________ २६४ रत्नधारक हो तो सहजमें उनके आश्रितोको वो उमदा गुणरलोका लाभ मिल सकता है; मगर सम्यग्ज्ञान वैराग्य सद्गुरु भक्ति' और भवभीरुतादिक सद्गुणोंकी न्यूनतासें खुद आपही गुण विरका हो तो वो अपने आश्रितोकों किस तरह गुणवंत बना सके ? आप निर्धन होवै तो दूसरोकों किस तरह धनवंत बना सके ? जगतमात्रका दारिद्र दूर करनेकी इच्छावाला कैसा महान् भाग्यभाजन होना चाहिये ? C - जगत्को ऋणमुक्त करनेहारे श्रीतीर्थंकरादि जैसे वैसे सामान्य जन नहि थे. वे असाधारण नररत्लो या पुरुपसिंह थे. श्रीसंघ के उपर अक्सरउचित अनुग्रह - कृपा करके पवित्र शासनकी प्रभावना करनेहारे श्रीवजस्वामि कौरः आपके अति उत्तम ज्ञान वैराग्य गुरुभक्ति और भवभीरुतादि कोटि सद्गुणोद्वारा श्रीवीतराग शासनकी, अमूल्य सेवा बजाने में सुप्रसिद्ध है. मेरे प्यारे भाइ-भगिनीयो ! जैसे उमदा गुणोंकों धारन करके पवित्र शासनको अमूल्य सेवा बजाने में अपनको भी जैसे महात्माओंके दृष्टांत ध्यानमें लेनेको जरूरत है; और पवित्र शासनकी वैसी अमूल्य सेवा बजाकर केंही अपनको अपना ये दश दृष्टांत दुर्लभ कहा हुवा मनुष्यजन्म, महाभाग्ययोग प्राप्त कियेहुवे उत्तम कूल, पंचेंद्रिय पाटव, शरीर सौष्टव, सुंगुरु समागम, वीतरागजीके वचन श्रवणादिक उत्तम धर्मसाधन अनुकूल सामग्री, तथा उसद्वारा भइ हुइ धर्मरुचि और क्रमशः प्रकेट 1 I स हुइ श्रद्धा विवेकादि सद्गुण श्रेणिकी सफलता माननेकी है. f

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