Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 277
________________ २५९ उत्तम करणाद्वारा मदद देकर उद्धार करने की अपनी मुख्य फर्ज है. केवल धर्मविमुख अनार्यत्ति पाप रति माणियोंकी तर्फ भी द्वेष न लातें उदासीन भावसही देखना या वर्सनेका है. अपने सत्य श्रेयका मार्ग तो करुणावंत देवने यही पतलाया है, और उनकी आदरनमें अपनकों का भी नहीं पड़ता है, उलटा परम सुख प्रकटता है. सर्वत्र उक्त मर्यादासे वर्तन चलानेसे स्वपरमें सुख शांति फैलती है. पवित्र 'आचारपरायण प्राणी इन लोकमें चंद्र समान निर्मल यश पाकर पीछे परत्र भी सुख पाते है. इनसे विरुद्ध वर्तन रखनेसें इस लोकमें प्रकट अपवाद अपयश मातकर परमवमें महान् अनर्थ पाता है. एक सामान्य राजाका हुकम न माननेसे बडा भारी अनर्थ प्रकटता है, तो केवल अपने हितकी खातिर परम करुणासें प्रकट हुइ त्रिजगपूज्य श्री तीर्थकर प्रभुजीकी पवित्र आज्ञाका स्वच्छंदतासे उल्लंघन करनेसे कितना भारी अनर्थ होनेका ! वो मेरे प्यारे नाता भगिनीयोंको अच्छी तरहसें सोचना लाजिम है. सम्या विचार करके गैरमर्यादासर होता हुवा आपखुदीका तदन विपरीत पनि विलकुल छोडकर परम पवित्र प्रभुकी अति उत्तम आज्ञाका पूर्ण प्रेमसे सेवन करना दुरस्त है, पीछे पूर्णश्रद्धासें प्रवर्त्तनेसे प्रतिदिन 'अपना अभ्युदयही होता हुवा अपन देखेंगे. जो सच्चे सुख शांति अनुभवने के लिये अपन अपगार हुवे है. तो अनुभव लेनेका दिवस अपनको तभी हाथ आयेगा कि जब अपनने परवस्तुमें

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