Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 242
________________ २२४ आगे बहुत ही पिछताना पडेगा. ३ अपनमें विवेककी बडी भारी तंगी मालुम होती है, वो अब खास सुधारनेकी जरुरत है. अविवेकसें अपन दूसरेके सद्गुणोंकों भी ग्रहण नहीं कर सकते हैं. अरे ! अपन उस्की पुष्टि करनी भूल कर विवेककी बड़ी भारी खामीसें अपन उलटे उसकी निंदा-बदी भी करने लगते है। वास्ते जो वीतराग वचनानुसार सत्य है, उसकों सच्चे दिलसें सत्य समान कबूल करना और आदरना वो अवश्य अपनको. शीखनाही चाहिये. - ४ वीतराग वचनानुसारसे सत्य क्या है और कया होसकै ? वो जाननेके वास्ते श्री हरीभद्रसूरी, श्री हेमचंद्रसूरी तथा श्रीमद् यशोविजयजी प्रमुख धर्म धुरंधर पुरुषोंने सर्वज्ञ वचन के मुजब रचे दुवे-प्रमाणिक ग्रंथोका पारीकीसें अवलोकन करनेकी खास जरुरत है. लेकिन पंडी अफसोसीकी बात तो यही है कि जैसें ग्रंथोंका तो कहनाही कया, मगर बहुत सरल सादी-सीधी भाषामें सत्य सर्वज्ञ प्रणीत धर्मकों प्रकाशमें लाने की बुद्धिसे लिखनेमें आये और . आते हुवे लेखोंकों पढनेकाभी मोह पश'जनोंसें नहीं बन सकता है, तो उस संबंधी घटित शोच विचार कर अपनी भुल हुँद निकालके उनको सुधारनेकी तक तो वै विचार किस तरह हाथ कर सके ?! अधपि भी असे वारीक समयमं महा गाढ मोह निंद छोडकर कड __ जात हो केवल परोपकार बुद्धिसें लिखे गये उत्तम लेख वाच.नेकी अमूल्य तक यदि न जाने देनमें आवे.और उनमें से बन सके

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