Book Title: Jain Hitbodh
Author(s): Karpurvijay
Publisher: Jain Shreyaskar Mandal Mahesana

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Page 264
________________ २४६ शुभकार्यमें यत्न करके स्वजन्म सफल करना चाहिये, नहीं तो संसारचक्रम पुनः पुनःभ्रमण करनेसे वडी भारी खरावी होवेगी. साधीनतासे वस्तका मूल्य समझकर उनको सदुपयोग किया जायगा તો સામે પાધિનતા નહીં સહન ની જહેમી બાંત યુપી संबंध है, वहांतक यदि शोच विचार करके सन्मार्गपर पड गये तो सुखी ही होयेंगे. नही तो दुःखकेही दिन हमेशा गुजारने पडेंगे. __ अब सुज्ञगनोंको इसे ज्यादा क्या कहै ? क्षण क्षणपर आयुष घ___टता ही जाता है. जो पल चली गई सो फिर पीछी आनेकीही नहीं, जैसा समझकर आगुंसेंही चेत लेयेंगे, वैही स्वहित साधकर फतह हाथ करेंगे और दूसरे अविवेकी उपेक्षावंतकों तो दुःखका पात्र ही होना पडेगा. " ११ अपने जैनोंमें मिथ्यात्वी लोगोंका गाह परिचय होनेसें, और सम्यग् ज्ञानके वियोगसें कितनेक बुरे रिवाज व रीति सम जडमूल डालकर घुस गये है, उसको निकालडालनेके वास्ते अभूल्य वख्तका भोग देकर भगीरथ यत्न करनेपर भी नहीं निकलते है, तो भी उनको निर्मूल करने के वास्ते निरंतर प्रयत्न शुरु रखनेकी ही जरुरत है. ज्यौं ज्यौं वै वै हानिकरनेवाले रीति रिवाजों के संबंध उत्तम तरहकी व्यवहारिक तथा धार्मिक तालीम मारफत अपने जैन ज्यादे वाकेफगार होते जायेंगे, त्यौं त्यौं वै अपने ही फायदेकी खातिर उन्होंकों छोडते चले जायेंगे. इस संबंध सुशील साधु साध्वी समूहकी अच्छी मदद मिलनेकी आवश्यकता है. मुग्ध

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