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और नै आश्रयद्वार बंध करके अहिंसा सलादि संबर के सम्या सेवनस आत्मा निर्मल होता है; तथापि कुत्ते, काग और सूकर के जैसे बुरे स्वभाववाले दुर्जन हिंसादि कुकर्ममें ही मशगुल् हो रहते हैं. और हंस के जैसे शुद्ध स्वभाव संपन्न सज्जन तो हिंसादि कुकमीका त्याग कर विवेक पूर्वक शुद्ध दया, सत्य, संतोपादि संवरका ही सेवन करनेमें आनंद मानकर उन्ही के ही अभिमुख रहते है. दुर्जन दूसरे जीवोंकी पापाचरणसं महान् त्रास पैदा करके अंतमें उनके कट फलके भागी होते हैं, उनको नरकादिकी घोर वेदना सहन करनी पड़ती है. यावत् स्वच्छंदतासें चल कर किये हुवे कुकर्म योगसे दुःख दावानलसें परिपक्क होनेवाले वो पामरोंका कोइ भी बचाव नहीं कर सकता है. अनाथ अशरण विचारोंओंकों वो सभी सहन करना ही पड़ता है. स्वाधीनतासें करके ऐसे कुकर्म न किये होते तो पराधीनतासें इतना क्यौ सहन करना पडता ? इतना ही नहीं, मगर शुभमति योगसे दया, सत्य, संतोपादि संवरको आदरकर आत्माको निर्मलकर परम सुख प्राप्त करता ! परंतु विष के बीजसें अमृतफलकी आशा क्यों करके रखी जावै ? निष्टुर दिलसें ऐसे कुकर्म करनेवालाको अनेक र नरकादि के घोर दुःख भुक्तने ही पडते हैं. ऐसा समझकर सर्वज्ञ परमात्माकी पवित्र आज्ञानुसार दया, सत्य, संतोषादि सद्गुण धारन करनेमें विवेकीजन प्रयाशील रहते है, और उन्होंको अपने प्राणकी तरह प्रिय गिनकर सर्वथा कुकर्मोंका त्याग करते हैं. ऐसे हमेशा विवेक