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विनय-चाहे वो. सद्गुणीकी साथ नम्रता सह वर्तन, सद्गुण समझकर उनका योग्य सत्कार करना सो (२), वैयापच अरिहंत, सिद्ध, आचार्य वगैरः पूज्य वर्गकी पहुँतमान पुरःसर भक्ति करनी सो (३), स्वाध्याय पाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा रूप ये पांच प्रकारका है उनका उपयोग करना सो (४), ध्यान शुभ ध्यानका चिंतन और अशुभ ध्यानको विस्मरण करना यानि मलीन विचारोंको दूरकर शुभ या शुद्ध-निदोष विचारोंको धारण करना, आत्म-परमागका एकाग्रतासें चिंतन करना, और पाहित्ति छोड अंतरवृत्ति भजनीसो (०), कासग-देहकी तथा उनकी साथ लगे हुवे मन और वचनकी चपलता दूर कर आत्म-परमात्म ध्यानमें ही तत्पर-लीन होना सो (६), यह छ आभ्यंतर तप है.
अंतर शुद्धि करने के वास्ते अवंध्य कारणभूत होनेसे वो अभ्यंतर तप कहा जाता है. अभ्यंतर तपकी पुष्टि हो वैसा बाह्य तप करना असा सर्वज्ञ भगवान ने भव्य जीवोंके लिये कथन किया है। वास्ते पो अवश्य तप आदरने योग्य है. तपके प्रभावसे अपिल
शक्तिय प्रकटती है, देव भी दास होते है, असाध्य भी साध्य होता ___ है, सभी उपद्रव शांत होते हैं, और सब कर्ममल दहन हो शुद्ध
सुन्नेकी तरह अपना आत्मा निर्मल किया जाता है; पास्ते आत्माथी-मुमुक्षु वर्गकों उनका सदा विक पुर्वक सेवन करना योग्य है. त५ सच्चा वही है कि जो कर्ममलको अच्छी तरह तपाकें साफ कर दे.