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१०० णावंत हो जो जो शक्य उपचारोंसें उनकी आंतर शुद्धि हो सके वैसा होवै तो उन उनके बनसके वहांतक सादे और सरल उपायसें अव्बलमें अतर शुद्धि यानि भीतरके मलरूपी मलीन वासना घोडालकर पीछेसें हरएक भव्य सत्वकी शक्ति मुजय उसको धर्म रसायण देते हैं. उनका अत्यंत प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाले भव्यजन परिणाममें अजरामर सुख संप्राप्त कर सकते हैं. और समस्त आधि व्याधि उपाधिसे मुक्त हो निरुपाधिक शिवमुखके स्वामी, होते हैं. तथास्तु !
प्रमाद रुप झहरका पियाला छुडाकर अप्रमाद रूप अमृतका कटोरा पीनेकी प्रेरणा करते हुवे श्री चिदानंदजी महाराज समझाते है कि
(पद पहिला-राग भैरव.) जागरे पटाउ ! अब भइ भोर बरा. जाग. भया रविका प्रकाश, कमळ हु भये विकाश; गया नाश प्यारे मिथ्या रैनका अंधेरा. जाग. १ सोतसें क्यौं आवै घाट, काटनी जरुर बाट । कोड नाही मित्त परदेशमें है तेरा. जाग. २ अवसर पीत जाय, पिछे पिछतावो थाय: चिदानंद निहचें यह मान कहा मेरा. जाग. ३
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