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रता दूर नहीं होती है. और कोमलता, आर्द्रता, सरलता, तथा समतादि सद्गुण श्रेणि प्रकट नहीं होती है. अंतमें जहां तक नीच, अन्यायी, पापी, निर्दयकी तर्फ उपेक्षा बुद्धि-राग द्वेष रहित मध्यस्थता नहीं आये, यहां तक निष्पक्षपात सर्वज्ञ शासनक रहस्यभूत सापेक्ष-दया धर्मका सेवन नहि होवै. अपर कही गई चारों भावना ये परम पवित्र सर्वज्ञ शासनकी गहरी नीव है, उसीसें पावन भावना विगरका धर्म केवल आडंबर या दंभ-कपट रुपही है. असी उत्तम भावनायें सहित की हुई या करनेमें आती हुई धर्म करणी दूध मीसरीके . मिलाप समान बहुत मुजेहदार स्वाददेती है, उसीके शिवायकी कुल धर्म
करणी फीकी रूखी लगती है. वैसी उत्तम भावनावंत भव्य कदाचित् किसी सबसे क्रियानुष्ठान करनेमें अश हो तो भी चित्तकी अतिशय शुद्धि-प्रसनतासे बड़ा भारी फायदा पैदा कर सकता है. और उक्त सद्भावना रहित प्राणी क्रियाका गर्व करके दुःखी भी होता है. वैराग्य ये औसी तो अपूर्व और चित्ताकर्षक चीज है के चक्रवर्ती जैसे भी ६ खंडकी ऋद्धि भोजूद होने परभी उसकों छोडकर योग-दीक्षा ले उनका शरण ग्रहण करते हैं. दुनियांकी सभी चीजोंमें भय रहा ही है, लेकिन वैराग्यमें भय नहीं है-पो अभय है. उसी पास्ते सच्चे सुखके अर्थिजन उन्हीकाही आश्रय लेनेका स्वीकारते है. विषयाश .. जीव जब पवनकी लहरी) ले
नेकों जाता है, तब विवेकी मुमुक्षुजन सभी दुःखोंको दलन करने- वाले वैराग्य लहरीओंकाही सेवन करता है-इतनाही नहीं; मगर