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मन किस वास्ते करनेका है ? दान, शील, तप, भाव, वैराग्य, और सौजनादि सद्गुणाका सेवन अपनको किस पास्ते करनेका है? इन सब वावतोंके लिये सम्यग् ज्ञान मिलाना कितना जरुरका है ? उन उन धर्म क्रिया संबंधी यथार्थ ज्ञान पूर्वक विवेकी सद्वर्तनसे अपने कितना उमदा फायदा मिला सकेंगे ? अहा ! उन उन पवित्र सर्वज्ञ परमात्मा प्रणीत धर्म क्रिया करनेमें अपनको कितनी भारी लज्झत मिष्टता आयेगी ? व्हो तो खास अनुभव गन्यही होने से उसका वर्णन नहि किया जाता है. पवित्र धर्म संबंधी समस्त सक्रिया करनेका तथा अनादि स्वच्छंदतास करनमें आती हुइ कुल असत् क्रिया छोड देने के लिये मूल हेतु विपय वासना तजकर निकषाय शुद्ध आत्म स्वभाव प्रकट करनेके वास्ते अपने अंतरंग शत्रु राग, द्वेष और मोहादिक महान् दोष दूर करनेका है. अपनकों समझ रखना चाहिये कि, अकेले राग और द्वेष कि जो मोहके पुत्र हैं और अपनी अज्ञानतासें मोहराजाके जोरसे अपनकों भव भव संताप देते रहते है तो भी तत्वसे उन्होंकी मित्रकी तरह सेवना करतेही रहते है. अकेले राग, द्वेषही अखिल जगतके जीवोंकों जेर करने के लिये शक्तिमान् हैं, तो ये दोनु मोह समेत जेर करनेका दोश करै तो फिर कहनाही क्या ? ज्ञानी पुरुष तो इन तीन्होंकों दुश्मनही कहते है. जन्म जन्ममें पवित्र धर्मकी समर्थ सहायता, सिवायके अशरण अनाथ प्राणीयोंको बहुत बहुत तरह संतापने वाले वै तीनूका किंचित् भी विश्वास न