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जैनधर्मामृत
इसके सम्पादक पं० पन्नालालजी सोनी हैं । इस ग्रन्थमें ७८२ श्लोक हैं । उनमेंसे मूढ़ता श्रादिके स्वरूप प्रतिपादक १४ श्लोक जैनधर्मामृत के पहले और दूसरे अध्याय में संग्रहीत किये गये हैं ।
१५. गुणभूषण और उनका श्रावकाचार
श्री गुणभूषणने रत्नकरण्ड, वसुनन्दि- उपासकाध्ययन श्रादि अपने पूर्ववर्ती श्रावकाचारों के श्राधारपर अपने श्रावकाचारकी रचना की है । उन्होंने अपने ग्रन्थका नाम यद्यपि 'भव्यननचित्तवल्लभश्रावकाचार' रखा है, पर यह नाम लम्बा अधिक था, अतः सर्व साधारण में प्रचलित नहीं हो सका और श्रमितगति, वसुनन्दि आदि के श्रावकाचारोंके समान ही यह भी उसके कर्त्ताके नामसे प्रसिद्ध हो गया । इसके तीन उद्देश्योंमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और श्रावक धर्मका २६६ श्लोकों के द्वारा बहुत ही सरल ढंगसे वर्णन किया गया है । यद्यपि गुणभूषणने अपने ग्रन्थके अन्तमें अपनेको त्रैलोक्यकीर्ति मुनिका शिष्य कहा है, पर इतने मात्रसे उनके समय आदिका निर्णय करना कठिन है । अनुमानतः इनका समय विक्रमको पन्द्रहवीं शताब्दी जान पड़ता है । इस ग्रन्थका प्रकाशन चन्दावाड़ी सूरतसे हुआ है ।
जैनधर्मामृत के सातवें अध्यायमें गुणभूपणश्रावकाचारसे केवल एक श्लोक संग्रहीत किया गया है ।
१६. राजमल्ल और पञ्चाध्यायी
पञ्चाध्यायी - जैन दर्शनका यह एक महान् ग्रन्थ है, जिसे उसके रचयिता पं० राजमल्लजीने स्वयं ही ' ग्रन्थराज' कहा है । यद्यपि यह ग्रन्थराज हमारे दुर्भाग्य से पूरा नहीं रचा जा सका है, तथापि श्राज इसका जो प्रारम्भिक डेढ़ अध्याय उपलब्ध है, वह भी बहुत विस्तृत है, इसके प्रथम अध्यायमें सत्, द्रव्य, गुण, पर्याय श्रादिका, तथा नयों