Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 154
________________ चतुर्थ अध्याय दातारके सत गुण ऐहिकफलानपेक्षा चान्तिर्निष्कपटतानसूयत्वम् । अविपादित्वमुदित्वे निरहङ्कारित्वमिति हि दातृगुणाः ॥ १०६ ॥ इस लोक सम्बन्धी फलकी अपेक्षारहितता, क्षमाभाव, निष्कपटता, ईप्यारहितता, विषादरहितता, प्रमोदभाव और निरभिमानता, इस प्रकार ये सात दातारके गुण हैं ॥ १०६ ॥ दानमें देने योग्य द्रव्य कैसा होना चाहिए ? रागद्वेपासंयम मददुःखभयादिकं न यत्कुरुते । द्रव्यं तदेव देयं सुतपःस्वाध्यायवृद्धिकरम् ॥ ११० ॥ जो द्रव्य राग, द्वेष, असंयम, मद, दुःख और भय आदिको उत्पन्न नहीं करे, किन्तु जो उत्तम तप व स्वाध्याय की वृद्धि करनेवाला हो, वही द्रव्य अतिथिके लिए देने योग्य है ॥ ११० ॥ १४१ भावार्थ - दानमें ऐसा ही पदार्थ देना चाहिए जो विकार भावोंको उत्पन्न न करे और तपश्चरणादिका वर्धक हो । साधु या व्रती पुरुषको शरीर यात्राके लिए शुद्ध प्रासुक आहारदान, रोगशमन के लिए निर्दोष औषधिदान, अज्ञान निवृत्तिके लिए शास्त्रदान और भय मिटानेके लिए अभयदान देना आवश्यक है । दान देने योग्य पात्रके भेद पात्रं त्रिभेदमुक्तं संयोगो मोक्षकारणगुणानाम् । अविरतसम्यग्दृष्टिः विरवाविरतश्च सकलविरतश्च ॥ १११ ॥ मोक्षके कारणभूत गुणों का संयोगवाला पात्र तीन प्रकारका कहा गया है । इनमें अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है, संयता

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