Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 159
________________ जैनधर्मामृत लेह्य आहारको क्रमशः छोड़कर स्निग्ध पानको बढ़ावे, अर्थात् केवल दुग्धादि पीकर रहे । पुनः क्रमसे स्निग्ध पानको भी छोड़कर क्रमसे खर पानको बढ़ावे अर्थात् छांछ, कांजी, सोंठ आदिके जल और उष्ण जलपर निर्भर रहे । क्रमसे खरपानका भी त्याग करके शक्तिके. ... अनुसार कुछ दिन उपवासोंको भी करके पञ्च नमस्कार मन्त्रका चिन्तवन करते हुए पूर्ण सावधानीके साथ शरीरका परित्याग करे ॥१२२-१२६॥ __ समाधिमरणका फल . . निःश्रेयसमभ्युदयं निस्तीरं दुस्तरं सुखाम्बुनिधिम् । निःपिबति पीवधर्मा सर्वदुःखैरनालीढः ।।१२७॥ जिस पुरुषने आजीवन धर्मामृतका पान किया है और अन्तिम समय समाधिमरणको धारण किया है, वह स्वर्गीय सुखोंको भोगकर अन्तमें सर्व दुःखोंसे रहित होता हुआ अगम, अपार सागर ऐसे निश्रेयस सुखके अर्थात् मोक्षके परम अमृत रसका पान करता है। अर्थात् सांसारिक उत्कृष्ट सुखोंको भोगकर अन्तमें सर्वोत्कृष्ट परम निर्वाण सुखको प्राप्त करता है ॥१२७॥ ... . अब श्रावककी ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन करते हैं श्रावक घरमें रहते हुए और पूर्वोक्त बारह व्रतोंका परिपालन करते हुए जो अपने व्रतोंमें उत्तरोत्तर उन्नति करता है, विशुद्धि प्राप्त करता है, उसके क्रमिक विकास सम्बन्धी ग्यारह कक्षाएँ है, जिन्हें प्रतिमा या श्रावकपद कहते हैं। इनमेंसे दशवी प्रतिमा तक श्रावक घरमें रहते हुए धर्म साधन कर सकता है। किन्तु ग्यारहवीं प्रतिमा के लिए गृहत्याग आवश्यक है।

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