Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 175
________________ १६२ जैनधर्मामृत ढाकना और अलंकार व काम-संगमसे रहित होना सो परम अचेलकता ( नग्नता ) गुण है ॥२९॥ ३ अस्नानगुण संयमद्वयरक्षार्थ स्नानादेवर्जनं मुनेः । ___ जल्लस्वेदमलालितगात्रस्यास्नानता स्मृता ॥३०॥ शरीरके मल-मूत्र, प्रस्वेद, कफ आदिसे लिप्त होने पर भी इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयमकी रक्षाके लिए स्नान आदिका त्याग करना सो मुनिका अस्नानगुण माना गया है ॥३०॥ ४ भू-शयनगुण प्रसन्नप्रासुकाऽनात्मसंस्कृतेलाशिलादिषु । एकपान कोदण्ड-दण्डशय्या महीशयः ॥३१॥ स्वच्छ, प्रासुक, अचेतन और संस्कृत पृथ्वी तल या शिलातल आदि पर एक पार्श्वसे वाण या दण्डके समान सीधे सोनेको भूमिशयनगुण कहते हैं ॥३१॥ ५स्थितिभोजनगुण . . स्वपात्रदातृशुद्धोव्यां स्थित्वा समपदद्वयम् । निरालम्बं करद्वन्द्वभोजनं स्थितिभोजनम् ॥३२॥ . अपनी पीछी द्वारा या दाताके द्वारा शुद्ध की गई पृथ्वी पर समान दोनों पैर रखकर व निरालम्बन खड़े होकर अपने दोनों हाथोंसे भोजन करना सो स्थितिभोजनगुण है ॥३२॥ ६ अदन्तधावनगुण .. दशनाघर्पणं पाषाणाङ्गुलीत्वङ्नखादिभिः । । स्यादन्ताकर्पणं भोगदेहवैराग्यमन्दिरम् ॥३३॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 173 174 175 176 177