________________ 164 जैनधर्मामृत जो पुरुष सर्व इन्द्रियोंको जीतकर अपने आत्माके द्वारा अपने आपको जानता है और निरन्तर आत्म-कल्याणकी सिद्धि करता है, वह 'जितेन्द्रिय' कहलाता है // 36 // यो हताशः प्रशान्ताशस्तमाशाम्बरमूचिरे / यः सर्व-सङ्ग-सन्त्यक्तः स नन्नः परिकीर्तितः // 37 // जिसने अपनी आशाओंका नाश कर दिया है और जिसकी सब आशाएँ शान्त हो गई हैं, वह 'आशाम्बर' या 'दिगम्बर' कहलाता है / जो सर्व परिग्रहसे रहित है, वह 'नग्न' कहलाता है // 37 // रेपणाल शराशीनामृपिमाहुर्मनीषिणः / / मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः // 38 // क्लेश समुदायके रेपण ( निष्कासन ) करनेसे मनीपी पुरुषोंने उसे 'ऋषि' कहा है / आत्म-विद्याओंके विषयमें माननीय होनेसे _ ' 'मुनि' कहलाता है // 38 // यः पापपाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत् / . योऽनीहो देहगेहेऽपि सोऽनगारः सतां मतः // 36 // जो पापरूपी पाशके नाश करनेके लिए यत्न करता है, वह 'यति' कहलाता है। जो शरीररूपी घरमें भी निरीह (इच्छा-रहित) . है, वह 'अनगार' कहलाता है // 39 // आत्माऽशुद्धिकरैर्यस्य न सङ्गः कर्मदुर्जनः / स पुमान् शुचिराख्यातो नाम्बुसम्प्लुतमस्तकः // 40 // जिसके आत्माको अशुद्ध करनेवाले . कर्मरूपी दुर्जनोंका संग नहीं है वह 'शुचि' कहा गया है, जलसे मस्तकको खूब धोनेवाला मा शुचि नहीं कहलाता // 40 // .. ..... /