Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 176
________________ i पञ्चम अध्याय १६३ पाषाण, अंगुली, छाल और नख आदिके द्वारा दाँतका नहीं घिसना सो भोग और देहसे वैराग्य उत्पन्न करनेके लिए मन्दिर स्वरूप दन्ताकर्षण नामका गुण है ||३३|| ७ एकभक्त गुण उदयास्तोभयं त्यक्त्वा त्रिनादीर्भोजनं सकृत् । एक-द्वि-त्रिमुहुत्तं स्यादेकभक्तं दिने मुनेः ॥३४॥ सूर्यके उदयकाल और अस्तकाल इन दोनों समय तीन तीन नाडी प्रमाण काल छोड़कर दिनमें एकबार भोजन करना सो एकभक्त नामका गुण है ||३४|| भावार्थ -- इस एक भक्तकी प्राप्तिके लिए जो गोचरी की जाती है उसका काल एक, दो और तीन मुहूर्त्त है । अर्थात् उत्कृष्ट गोचरी का काल एक मुहूर्त्त, मध्यम गोचरीका काल दो मुहूर्त्त और जघन्य गोचरीका काल तीन मुहूर्त है । ऋपिर्यतिमुनिभिक्षुस्तापसः संयतो व्रती । तपस्वी संयमी योगी वर्णी साधुश्च पातु नः ॥३५॥ जो पुरुष इन उपर्युक्त अट्ठाईस मूल गुणोंसे संयुक्त हैं, सकल संयमके धारक हैं, उन्हें ऋषि, यति, मुनि, भिक्षु, तापसं, संयत, ती, तपस्वी, योगी, वर्णी, साधु और अनगार आदि नामों से पुकारते हैं । ऐसे साधु हमारी रक्षा करें ||३५|| साधुओंकी कुछ विशेष संज्ञाएँ जित्वेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेच्यात्मानमात्मना । साधयत्यात्मकल्याणं स जितेन्द्रिय उच्यते ॥ ३६ ॥

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