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जैनधर्मामृत
ढाकना और अलंकार व काम-संगमसे रहित होना सो परम अचेलकता ( नग्नता ) गुण है ॥२९॥
३ अस्नानगुण संयमद्वयरक्षार्थ स्नानादेवर्जनं मुनेः । ___ जल्लस्वेदमलालितगात्रस्यास्नानता स्मृता ॥३०॥
शरीरके मल-मूत्र, प्रस्वेद, कफ आदिसे लिप्त होने पर भी इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयमकी रक्षाके लिए स्नान आदिका त्याग करना सो मुनिका अस्नानगुण माना गया है ॥३०॥
४ भू-शयनगुण प्रसन्नप्रासुकाऽनात्मसंस्कृतेलाशिलादिषु ।
एकपान कोदण्ड-दण्डशय्या महीशयः ॥३१॥ स्वच्छ, प्रासुक, अचेतन और संस्कृत पृथ्वी तल या शिलातल आदि पर एक पार्श्वसे वाण या दण्डके समान सीधे सोनेको भूमिशयनगुण कहते हैं ॥३१॥
५स्थितिभोजनगुण . . स्वपात्रदातृशुद्धोव्यां स्थित्वा समपदद्वयम् ।
निरालम्बं करद्वन्द्वभोजनं स्थितिभोजनम् ॥३२॥ . अपनी पीछी द्वारा या दाताके द्वारा शुद्ध की गई पृथ्वी पर समान दोनों पैर रखकर व निरालम्बन खड़े होकर अपने दोनों हाथोंसे भोजन करना सो स्थितिभोजनगुण है ॥३२॥
६ अदन्तधावनगुण .. दशनाघर्पणं पाषाणाङ्गुलीत्वङ्नखादिभिः । । स्यादन्ताकर्पणं भोगदेहवैराग्यमन्दिरम् ॥३३॥