Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 173
________________ जैनधर्मामृत तीर्थकरों के गुणोंका कीर्तन करना, नामों की निरुक्ति करना, उनकी पूजा करना, ऋषभ आदि जिनेश्वरों की स्तुति करना स्तवनआवश्यक है ||२२|| १६० ३ वन्दना आवश्यक जैन कतीर्थ कृत्सिद्धसाधूनां क्रिययान्वितम् । वन्दनं स्तुतिमात्रं वा चन्दनं पुण्यनन्दनम् ॥२३॥ जिन-सामान्यकी, किसी एक तीर्थंकरकी, सिद्धोंकी और साधुओं की क्रियाकलापसे युक्त वन्दना करना या स्तुति करना सो पुण्यका कारण वन्दना - आवश्यक है ||२३|| ४ प्रतिक्रमण आवश्यक निन्दनं गर्हणं कृत्वा द्रव्यादिषु कृतागसाम् । शोधनं वाङ्मनःकार्यैस्तत्प्रतिक्रमणं मतम् ||२४|| अपनी निन्दा और गही करके द्रव्य आदिमें किये गये अपराधोंका मन, वचन, कायके द्वारा शोधन करना प्रतिक्रमण आवश्यक है ||२४|| '५ प्रत्याख्यान आवश्यक यन्नामस्थापनादीनामयोग्यपरिवर्जनम् । त्रिशुद्धयाऽनागते काले तत्प्रत्याख्यानमीरितम् ॥ २५॥ नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिके आश्रयसे भविष्य काल के लिए अयोग्य द्रव्यादिका मन वचन कायसे परित्याग करना प्रत्याख्यान-आवश्यक है ||२५|| ६ कायोत्सर्ग - आवश्यक स्तवनादौ तनुत्यागः श्रीमत्पञ्चगुरुस्मृतिः । व्युत्सर्गः स्याच्छ्रतप्रोक्तोच्छ्रासावसरलक्षणः ॥ २६ ॥

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