Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 172
________________ पञ्चम अध्याय १५६ समता भावसे युक्त होकर शरीर -यात्रा के निमित्त जो भोजन करना सो. रसनेन्द्रिय विजय है ॥ १८ ॥ ५ स्पर्शनेन्द्रियविजय : जीवाजीवोभयस्पर्शे कर्कशाद्यष्टभेदके । शुभेऽशुभेऽतिमध्यस्थं मनः स्पर्शाक्षनिर्जयः ॥ १६ ॥ जीव अजीव और दोनोंके संयोगसे उत्पन्न हुए, कर्कश, कोमल आदि आठ भेदवाले, शुभ और अशुभ स्पर्शमें मनको अत्यन्त मध्यस्थ रखना स्पर्शनेन्द्रिय - विजयगुण है ॥१९॥ छह आवश्यक आवश्यक क्रियापटुकं समतास्तववन्दनम् । सप्रतिक्रमणं प्रत्याख्यानं कायविसर्जनम् ॥२०॥ समता, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक कहलाते हैं ||२०|| १ समता - आवश्यक लाभालाभ - सुखक्लेशप्रमुखे समता मतिः । स्वायत्तकरणस्वान्तज्ञानिनः समता मता ॥२१॥ . C लाभ और अलाभमें, सुख और दुःखमें, नगर और वनमें, शत्रु और मित्रमें, काच और कांचनमें समान बुद्धि रखना समता आवश्यक । इसके गुणके द्वारा ही ज्ञानी जन अपने अन्तःकरणमें समभावको धारण करते हैं ॥२१॥ २ चतुर्विंशति स न आवश्यक कृत्वा गुणगणोत्कीर्तिनामव्युत्पत्तिपूजनम् ।... वृषभादिजिनाधीशस्तवनं स्तवनं मतम् ॥ २२ ॥

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