Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 164
________________ चतुर्थ अध्याय जिस श्रावककी किसी भी प्रकारके आरम्भमें, अथवा परिग्रहमें या ऐहिक कार्योंमें अनुमोदना नहीं रहती है, वह समबुद्धि अनुमतित्यागी श्रावक मानना चाहिए ॥१३८॥ . . . . · . भावार्थ--इस प्रतिमाका धारी श्रावक घरमें रहते हुए भी किसी भी लौकिक कार्यमें पूछे जाने पर भी अपनी सम्मति नहीं देता है और परम उदासीनताका अनुभव करता हुआ जलमें भिन्न कमलके समान घरमें अलिप्त भावसे उदासीन होकर रहता है। ११ उद्दिष्टत्यागप्रतिमा । गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य । भैन्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेलखण्डधरः ॥१३॥ जो श्रावकं अपने घरसे मुनिवनको जाकर गुरुके समीपमें व्रतों को ग्रहण करके भिक्षावृत्तिसे आहार करता है, चेलखण्डको धारण करता है और रातदिन तपस्या करता रहता है, वह उत्कृष्ट श्रावक है। यह अपने निमित्तसे बने हुए आहारको ग्रहण नहीं करता है, इसलिए इसे उद्दिष्टाहारत्यागी श्रावक कहते हैं ।।१३९॥ । उक्त ग्यारह प्रतिमाओंमें उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्यका विभाग और उनकी संज्ञाओंको निर्देश करते हैं--- । पढन गृहिणो ज्ञेयास्त्रयः स्युर्ब्रह्मचारिणः । । भिक्षुको द्वौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥१४०॥ प्रारम्भके छह प्रतिमाधारी गृहस्थ कहलाते हैं और वे जघन्य श्रावक हैं। सातवीं आठवीं नवीं प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी या वर्णी कहलाते हैं और वे मध्यम श्रावक हैं । दशवी और ग्यारहवीं प्रतिमाके

Loading...

Page Navigation
1 ... 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177