Book Title: Jain Dharmamruta
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 160
________________ चतुर्थ. अध्याय ' श्रावकपदानि देवैरेकादश देशितानि येषु खलु। . स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह सन्तिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥१२॥ .. गणधरदेवने श्रावकोंके ग्यारह पद या स्थान कहे हैं, जिनमें . निश्चयसे विवक्षित पदके गुण पूर्वपदसम्बन्धी गुणोंके साथ क्रमसे वढ़ते हुए रहते हैं, अर्थात् आगामी प्रतिमावाले के लिए पूर्व प्रतिमा सम्बन्धी गुणोंका धारण करना आवश्यक है ।।१२८॥ १ दर्शनप्रतिमा सम्यग्दर्शनशुद्धः संसार-शरीर-भोगनिविण्णः । पञ्चगुरुचरणशरणो दार्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥१२॥ . जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है, संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त है, पंच परम गुरुओंके चरणोंके शरणको प्राप्त है और सत्यमार्गके ग्रहण करनेका पक्षवाला है, वह दर्शनप्रतिमाका धारी दार्शनिक श्रावक है ॥१२॥ . २ नतप्रतिमा .. निरतिक्रमणमणुवतपञ्चकमपि शीलसप्तकञ्चापि । .. धारयते निःशल्यो योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिकः ॥१३०॥ . जो श्रावक माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे .. रहित होकर निरतिचार अर्थात् अतिचार-रहित निर्दोष पाँच अणुव्रत और सात शीलवतोंको धारण करता है, वह व्रती पुरुषोंके । मध्यमें व्रतप्रतिमाका धारी बतिक श्रावक माना गया है ॥१३०॥ : . ... . . . . , ३ सामायिकप्रतिमा ' . .. . . . . . चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामस्थितो यथाजातः ।. .... . ... ..: सामयिको द्विनिपद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ॥१३॥

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